सूरए आले इमरान – पहला रूकू

तीसरा पारा  ( जारी ) 
मदीने में उतरी (1) आयते 200, रूकू 20 
अल्लाह के नाम से शुरू जो बहुत मेहरबान रहमत वाला

अलिफ़ लाम मीम (1) अल्लाह  है जिसके सिवा किसी की पूजा नहीं (2)
आप ज़िन्दा, औरों का क़ायम रखने वाला (2)
उसने तुम पर यह सच्ची किताब उतारी अगली किताबों की तस्दीक़ (पुष्टि) फ़रमाती और उसने इस से पहले तौरात और इन्ज़ील उतारी (3)
लोगों को राह दिखाती और फै़सला उतारा बेशक वो जो अल्लाह की आयतों को इन्कारी हुए (3)
उनके लिये सख़्त अज़ाब है, और अल्लाह ग़ालिब बदला लेने वाला है (4)
अल्लाह पर कुछ छुपा नहीं ज़मीन में न आसमान में (5)
वही है जो तुम्हारी तस्वीर बनाता है माओं के पेट में जैसी चाहे (4)
उसके सिवा किसी की इबादत नहीं, इज़्ज़त वाला हिक़मत वाला (5) (6)
वही है जिसने तुमपर यह किताब उतारी इसकी कुछ आयतें साफ़ मानी रखती हैं (6)
वो किताब की अस्ल हैं (7)
और दूसरी वो हैं जिनके मानी में इश्तिबाह  (शक) है (8)
वो जिनके दिलों में कजी है  (9)
वो इश्तिबाह वाली के पीछे पड़ते हैं (10)
गुमराही चाहते (11)
और उसका पहलू ढूंढने को (12)और उसका ठीक पहलू अल्लाह ही को मालूम है (13)
और पुख़्ता इल्म वालें (14) कहते हैं हम उसपर ईमान लाएं (15)
सब हमारे रब के पास से है (16)
और नसीहत नहीं मानते मगर अक़्ल वाले (17) (7)
ऐ रब हमारे दिल टेढ़े न कर बाद इसके कि तूने हमें हिदायत दी और हमें अपने पास से रहमत अता कर, बेशक तू है बड़ा देने वाला (8)  ऐ रब हमारे बेशक तू सब लोगों को जमा करने वाला है (18)
उस दिन के लिए जिसमें कोई शुबह नहीं (19)
बेशक अल्लाह का वादा नहीं बदलता (20) (9)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – पहला रूकू

(1) सूरए आले इमरान मदीनए तैय्यिबह में उतरी. इसमें बीस रूकू, दो सौ आयतें, तीन हज़ार चार सौ अस्सी शब्द और चौदह हज़ार पाँच सौ बीस अक्षर हैं.

(2) मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि यह आयत नजरान के प्रतिनिधि मण्डल के बारे में उतरी जो साठ सवारों पर आधारित था. उस में चौदह सरदार थे और तीन उस क़ौम के बुज़ुर्ग और नेता. एक आक़िब जिसका नाम अब्दुल मसीह था. यह व्यक्ति क़ौम का अमीर अर्थात मूखिया था और उसकी राय के बिना ईसाई कोई काम नहीं करते थें. दूसरा सैयद जिसका नाम एहम था. यह व्यक्ति अपनी क़ौम का मुख्य सचिव और वित्त विभाग का बड़ा अफ़सर था. खाने पीने और रसद के सारे प्रबन्ध उसी के हुक्म से होते थे. तीसरा अबू हारिस बिन अलक़मा था. यह शख़्स ईसाईयों के तमाम विद्वानों और पादरियों का सबसे बड़ा पेशवा था. रूम के बादशाह उसके इल्म और उसकी धार्मिक महानता के लिहाज़ से उसका आदर सत्कार करते थे. ये तमाम लोग ऊमदा क़ीमती पोशाकें पहनकर बड़ी शान से हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से मुनाज़िरा यानी धार्मिक बहस करने के इरादे से आए और मस्जिदे अक़दस में दाख़िल हुए. हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम उस वक़्त अस्त्र की नमाज़ अदा फ़रमा रहे थे. उन लोगों की नमाज़ का वक़्त भी आ गया और उन्होंने भी मस्जिद शरीफ़ ही में पूर्व दिशा की ओर मुंह करके नमाज़ शुरू कर दी. पूरी करने के बाद हुज़ूरे अक़दस सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से बातचीत शुरू की. हुज़ूर ने फ़रमाया तुम इस्लाम लाओ. कहने लगे हम आपसे पहले इस्लाम ला चुके. फ़रमाया यह ग़लत है, यह दावा झूटा है, तुम्हें इस्लाम से तुम्हारा यह दावा रोकता है कि अल्लाह के औलाद है. और तुम्हारी सलीब परस्ती रोकती है. और तुम्हारा सुअर खाना रोकता है. उन्होंने कहा अगर ईसा ख़ुदा के बेटे न हों तो बताइये उनका बाप कौन है. और सब के सब बौलने लगे.  सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया,  क्या तुम नहीं जानते कि बेटा बाप से ज़रूर मुशाबेह होता है. उन्होंने इक़रार किया. फिर फ़रमाया क्या तुम नहीं जानते कि हमारा रब ज़िन्दा है, उसे मौत नहीं, उसके लिये मौत मुहाल है, और ईसा अलैहिस्सलाम पर मौत आने वाली है. उन्होंने इसका भी इक़रार किया. फ़िर फ़रमाया, क्या तुम नहीं जानते कि हमारा रब बन्दों के काम बनाने वाला और उनकी हक़ीक़ी हिफ़ाज़त करने वाला है और रोज़ी देने वाला है. उन्होंने कहा, हाँ. हुज़ूर ने फ़रमाया क्या हज़रत ईसा भी ऐसे ही हैं. वो बोले नहीं. फ़रमाया, क्या तुम नहीं जानते कि अल्लाह तआला पर आसमान और ज़मीन की कोई चीज़ छुपी हुई नहीं. उन्होंने इक़रार किया. हुज़ूर ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा अल्लाह की तालीम के बिना उसमें से कुछ जानते हैं. उन्होंने कहा, नहीं. हुज़ूर ने फ़रमाया, क्या तुम नहीं जानते कि हज़रत ईसा गर्भ में रहे, पैदा होने वालों की तरह पैदा हुए, बच्चों की तरह खिलाए पिलाए गए, आदमियों वाली ज़रूरतें रखते थे. उन्होंने इसका इक़रार किया. हुज़ूर ने फ़रमाया, फिर वह कैसे इलाह यानी मअबूद हो सकते हैं जैसा कि तुम्हारा गुमान है. इस पर वो सब ख़ामोश रह गए और उनसे कोई जवाब न बन पड़ा. इस पर सूरए आले इमरान की पहली से कुछ ऊपर अस्सी आयतें उतरीं. अल्लाह की विशेषताओं में हैय्य का मतलब है दायम बाक़ी यानी ऐसा हमेशगी रखने वाला जिसकी मौत मुमकिन ही न हो. क़ैय्यूम वह है जो अपनी ज़ात से क़ायम हो और दुनिया वाले अपनी दुनिया और आख़िरत की ज़िन्दगी में जो हाजतें रखते हैं, उसका प्रबन्ध फ़रमाए.

(3) इसमें नजरान के प्रतिनिधि मण्डल के ईसाई भी शामिल हैं.

(4) मर्द, औरत, गोरा, काला, खूबसूरत, बदसूरत, वग़ैरह. बुख़ारी और मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, तुम्हारी पैदाइश का माद्दा माँ के पेट में चालीस रोज़ जमा होता है, फिर इतने ही दिन गोश्त के टुकड़े की सूरत में रहता है, फिर अल्लाह तआला एक फ़रिश्ता भेजता है जो उसका रिज़्क़, उसकी उम्र, उसके कर्म, उसका अन्त, यानी उसका सौभाग्य और दुर्भाग्य लिखता है. फिर उसमें रूह डालता है, तो उसकी क़सम, जिसके सिवा कोई पूजे जाने के क़ाबिल नहीं है, आदमी जन्नतियों के से कर्म करता रहता है, यहाँ तक कि उसमें और जन्नत में हाथ भर का यानी बहुत कम फ़र्क़ रह जाता है. तो किताब सबक़त करती है, और वह दोज़ख़ियों के से अमल करता रहता है, यहाँ तक कि उसमें और दोज़ख़ं में एक हाथ का फ़र्क़ रह जाता है फिर किताब सबक़त करती है और उसकी ज़िन्दगी का नक़शा बदलता है और वह जन्नतियों के से अमल करने लगता है. उसी पर उसका ख़ात्मा होता है और वह जन्नत में दाख़िल होता है.

(5) इसमें भी ईसाईयों का रद है जो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को ख़ुदा का बेटा कहते और उनकी पूजा करते थे.

(6) जिसमें कोई संदेह या शक नहीं.

(7) कि अहकाम में उनकी तरफ़ रूजू किया जाता है और हलाल व हराम में उन्हीं पर अमल.

(8) वो कुछ कारणों का ऐहतिमाल रखती हैं. उनमें से कौन सी वजह, कौन सा कारण मुराद है अल्लाह ही जानता है या जिसको अल्लाह तआला उसकी जानकारी दे.

(9) यानी गुमराह और अधर्मी लोग, जो अपने नफ़्स के बहकावे के पाबन्द हैं.

(10) और उसके ज़ाहिर पर हुक्म करते हैं या झूटी व्याख्या करते हैं और यह नेक नियत से नहीं बल्कि……

(11) और शक शुबह में डालने.

(12) अपनी इच्छा के अनुसार, इसके बावुजूद कि वो व्याख्या के योग्य नहीं. (जुमल और ख़ाज़िन)

(13) हक़ीक़त में. (जुमल). और अपने करम और अता से जिसको वह नवाज़े.

(14) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है, आप फ़रमाते थे कि मैं पक्का इल्म जानने वालों मे से हूँ और मुजाहिद से रिवायत है कि मैं उनमें से हूँ जो रहस्य वाली आयतों की तावील या व्याख्या जानते हैं. हज़रत अनस बिन मालिक से रिवायत है कि पक्का इल्म जानने वाले वो हैं जिनमें चार विशेषताएं हों, अल्लाह से डर, लोगों से अच्छा व्यवहार, दुनिया के जीवन में पाकीज़गी, और नफ़्स के साथ निरन्तर लड़ाई. (ख़ाज़िन)

(15) कि वह अल्लाह की तरफ़ से है और जो मानी उसकी मुराद हैं. सच्ची हैं और उसका नाज़िल फ़रमाना हिकमत है.

(16) अहकाम हों या रहस्य.

(17) और पक्के इल्म वाले कहते है.

(18) हिसाब या बदले के वास्ते.

(19) वह क़यामत का दिन है.

(20) तो जिसके दिल में कजी या टेढ़ापन हो वह हलाक हो गए, और जो तेरे एहसान से हिदायत पाए वह नसीब वाला होगा. निजात पाएगा. इस आयत से मालूम हुआ कि झूट उलूहियत यानी अल्लाह होने के विरूद्ध है. लिहाज़ा अल्लाह की तरफ़ झूट का ख़याल और निस्बत सख़्त बेअदबी है. (मदारिक व अबू मसऊद वग़ैरह)

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सूरए आले इमरान – दूसरा रूकू

सूरए आले इमरान – दूसरा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,
बेशक वो जो काफ़िर हुए (1)
उनके माल और उनकी औलाद अल्लाह से उन्हें कुछ न बचा सकेंगे और वही दोज़ख़ के ईंधन हैं
(10) जैसे फिरऔन वालों और उनसे अगलों का तरीक़ा, उन्होंने हमारी आयतें झुठलाईं तो अल्लाह ने उनके गुनाहों पर उनको पकड़ा  और अल्लाह का अज़ाब सख़्त(11) फ़रमा दो क़ाफिरों से, कोई दम जाता है कि तुम मग़लूब (पराजित) होंगे  और दोज़ख़ की तरफ़ हांके जाओगे (2)
और वह बहुत बुरा बिछौना (12) बेशक तुम्हारे लिये निशानी थी (3)
दो दलों में जो आपस मे भिड़ पड़े (4)
एक जत्था अल्लाह की राह में लड़ता (5)
और दूसरा काफ़िर (6)
कि उन्हें आँखों देखा अपने से दूना समझें और अल्लाह अपनी मदद से ज़ोर देता है जिसे चाहता है(7)
बेशक इसमें अक़्लमंदों के लिये ज़रूर देखकर सीखना है (13) लोगों के लिये सजाई गई उन ख़्वाहिशों की महब्बत (8)  औरतें और बेटे और तले उपर सोने चांदी के ढेर और निशान किये हुए घोड़े और चौपाए और खेती, यह जीती दुनिया की पूंजी है  (9)
और अल्लाह है जिसके पास अच्छा ठिकाना (10)(14) तुम फ़रमाओ क्या मैं तुम्हें इससे (11)
बेहतर चीज़ बतादूं परहेज़गारों के लिये, उनके रब के पास जन्नतें है जिनके नीचे नहरें जारी, हमेशा उनमें रहेंगे  और सुथरी बीबियां (12)
अल्लाह की ख़ुशनूदी (रज़ामंदी)(13)
और अल्लाह बन्दों को देखता है (14) (15)
वो जो कहते हैं, ऐ रब हमारे हम ईमान लाए तू हमारे गुनाह माफ़ कर और हमें दोज़ख़ के अज़ाब से बचाले, सब्र वाले (15)(16)
और सच्चे (16)
और अदब वाले और ख़ुदा की राह में ख़र्चने वाले और पिछले पहर से माफ़ी मांगने वाले (17)(17)
अल्लाह ने गवाही दी कि उसके सिवा कोई मअबूद नहीं (18)
और फ़रिश्तों ने और आलिमों ने (19)
इन्साफ़ से क़ायम होकर, उसके सिवा किसी की इबादत नहीं, इज़्ज़त वाला हिकमत वाला(18)
बेशक अल्लाह के यहां इस्लाम ही दीन है (20)
और फूट में न पड़े किताब (21)
मगर बाद इसके कि उन्हें इल्म आचुका (22)
अपने दिलों की जलन से (23)
और जो अल्लाह की की आयतों का इन्कारी हो तो बेशक अल्लाह जल्द हिसाब लेने वाला है (19)
फिर ऐ मेहबूब, अगर वो तुम से हुज्जत (तर्क वितर्क) करें तो फ़रमादो मैं अपना मुंह अल्लाह के हुज़ूर झुकाए हुँ  और जो मेरे अनुयायी हुए (24)
और किताबियों और अनपढ़ों से फ़रमाओ (25)
क्या तुमने गर्दन रखी (26)
तो अगर वो गर्दन रखे तो जब तो राह पा गए और अगर मुंह फेरें तो तुम पर तो यही हुक्म पहुंचा देना है (27)
और अल्लाह बन्दों को देख रहा है (20)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – दूसरा रूकू

(1) रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का विरोध करके.

(2) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि जब बद्र में काफ़िरों को रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम परास्त कर चुके और मदीनए तैय्यिबह वापस तशरीफ़ लाए तो हुज़ूर ने यहूदियों को जमा किया और फ़रमाया कि तुम अल्लाह से डरो और इस्लाम लाओ, इससे पहले कि तुम पर ऐसी मुसीबत आए जैसी बद्र में क़ुरैश पर आई. तुम जान चुके हो मैं अल्लाह का भेजा हुआ रसूल हूं. तुम अपनी किताब में यह लिखा हुआ पाते हो. इस पर उन्होंने कहा कि क़ुरैश तो जंग की कला से अनजान हैं, अगर हम से मुक़ाबला हुआ तो आपको मालूम हो जाएगा कि लड़ने वाले ऐसे होते हैं. इस पर यह आयत उतरी और उन्हें ख़बर दी गई कि वो परास्त होंगे और क़त्ल किये जाएंगे, गिरफ़तार किये जाएंगे, उन पर जिज़िया मुक़र्रर होगा. चुनांचे ऐसा ही हुआ कि नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने एक रोज़ में छ: सौ की तादाद को क़त्ल फ़रमाया और बहुतों को गिरफ़तार किया और ख़ेबर वालों पर जिज़िया मुक़र्रर फ़रमाया.

(3) इसके मुख़ातब यहूदी हैं, पर कुछ का कहना है कि सारे काफ़िर और कुछ के अनुसार ईमान वाले. (जुमल).

(4) बद्र की लड़ाई में.

(5) यानी नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम और आपके सहाबा, उनकी कुल संख्या तीन सौ तेरह थी. सत्तर मुहाजिर और 236 अनसारी, मुहाजिरीन के सलाहकार हज़रत अली मुरतज़ा थे और अनसार के हज़रत सअद बिन उबादा रदियल्लाहो अन्हुम. इस पूरे लश्कर में कुल दो घोड़े, सत्तर ऊंट और छ ज़िरहें, आठ तलवारें थीं. और इस घटना में चौदह सहाबा शहीद हुए, छ मुहाजिर और आठ अनसार.

(6) काफ़िरों की संख्या नौसो पचास थी उनका सरदार उतबा बिन रबीआ था. और उनके पास सौ घोड़े थे, और सात सौ ऊंट और बहुत सी ज़िरहें और हथियार थे. (जुमल)

(7) चाहे उसकी संख्या कम हो और सामान की कितनी ही कमी हो.

(8) ताकि वासना के पुजारियों और अल्लाह की इबादत करने वालों के बीच फ़र्क़ और पहचान ज़ाहिर हो, जैसा कि दूसरी आयत में इरशाद फ़रमाया “इन्ना जअलना मा अलल अर्दे ज़ीनतल लहा लिनबलूहुम अय्युहुम अहसना अमला” (यानी बेशक हमने ज़मीन का सिंगार किया जो कुछ उस पर है कि उनहें आज़माएं उनमें किस के काम बेहतर हैं) (सूरए अल-कहफ, आयत सात)

(9) इससे कुछ अर्सा नफ़ा पहुंचता है, फिर नष्ट हो जाती है. इन्सान को चाहिये कि दुनिया के माल को ऐसे काम में ख़र्च करे जिसमें उसकी आख़िरत की दुरूस्ती और सआदत हो.

(10) जन्नत, तो चाहिये कि इसकी रग़बत की जाय और नाशवान दुनिया की नश्वर चीज़ों से दिल न लगाया जाए.

(11) दुनिया की पूंजी से.

(12) जो ज़नाना बीमारियों और हर नापसन्द और नफ़रत के क़ाबिल चीज़ से पाक.

(13) और यह सबसे उत्तम नेअमत है.

(14) और उनके कर्म और अहवाल जानता और उनका अज्र या बदला देता है.

(15)  जो ताअत और मुसीबत पर सब्र करें और गुनाहों से रूके रहे.

(16) जिनके क़ौल और इरादे और नियतें सब सच्ची हो.

(17) इसमें रात के आख़िर में नमाज़ पढ़ने वाले भी. यह वक़्त तन्हाई और दुआ क़ुबूल होने का है. हज़रत लुक़मान ने अपने बेटे से फ़रमाया, मुर्गे़ से कम न रहना कि वह तो सुबह से पुकार लगाए और तुम सोते रहो.

(18) शाम के लोगों में से दो व्यक्ति हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए. जब उन्होंने मदीनए तैय्यिबह को देखा तो एक दूसरे से कहने लगा कि आख़िरी ज़माने के नबी के शहर की यह विशेषता है जो इस शहर में पाई जाती है. जब हुज़ूर के आस्ताने पर हाज़िर हुए तो उन्होंने हुज़ूर की शक्ले पाक और हुलिये को तौरात के मुताबिक देखकर पहचान लिया और अर्ज़ किया, आप मुहम्मद हैं. हुज़ूर ने फ़रमाया, हाँ. फिर अर्ज़ किया कि आप अहमद हैं (सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) फ़रमाया, हाँ.  अर्ज़ किया, हम एक सवाल करते है, अगर आपने ठीक ठीक जवाब दे दिया तो हम आप पर ईमान ले आएंगे. फ़रमाया, पूछो. उन्होंने अर्ज़ किया कि अल्लाह की किताब में सब से बड़ी शहादत कौन सी है ? इस पर आयते करीमा उतरी और इसको सुनकर वह दोनो व्यक्ति मुसलमान हो गए. हज़रत सईद बिन जुबैर रदियल्लाहो अन्हो से रिवायत है कि काबए मुअज़्ज़मा में तीन सौ साठ बुत थे. जब मदीनए तैय्यिबह में यह आयत उतरी तो काबे के अन्दर वो सब सिजदे में गिर गए.

(19) यानी नबियों और वलियों ने.

(20) उसके सिवा कोई और दीन अल्लाह का पसन्दीदा नहीं. यूहूदी और ईसाई वग़ैरह काफ़िर जो अपने दीन को अफ़ज़ल और मक़बूल कहते है, इस आयत में उनके दावे को बातिल कर दिया.

(21) यह आयत यहूदियों और ईसाईयों के बारे में उतरी. जिन्हों ने इस्लाम को छोड़ा और सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत में विरोध किया.

(22) वो अपनी किताबों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नात और सिफ़त देख चुके और उन्होंने पहचान लिया कि यही वह नबी हैं जिनकी आसमानी किताबों में ख़बरें दी गई है.

(23) यानी उनके विरोध का कारण उनका हसद और दुनियावी नफ़े का लालच है.

(24) यानी मैं और मेरे मानने वाले पूरी तरह अल्लाह तआला के फ़रमाँबरदार और मुतीअ हैं, हमारा दीन तौहीद का दीन है जिसकी सच्चाई भी साबित हो चुकी है वह भी ख़ुद तुम्हारी अपनी किताबों से, तो इसमें तुम्हारा हमसे झगड़ना बिल्कुल ग़लत है.

(25 जितने क़ाफ़िर ग़ैर किताबी हैं वो “उम्मीयीन” (अनपढ़ों) में दाख़िल हैं, उन्हीं में से अरब के मुश्रिक भी है.

(26) और दीने इस्लाम के सामने सर झुकाया या खुले प्रमाण क़ायम होने के बावुजूद तुम अभी तक अपने कुफ़्र पर हो. यह दावते इस्लाम का एक अन्दाज़ है, और इस तरह उन्हें सच्चे दीन की तरफ़ बुलाया जाता है.

(27) वह तुमने पुरा कर ही दिया. इस से उन्होंने नफ़ा न उठाया तो नुक़सान में वो रहे. इसमें हुज़ूर सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तस्कीन फ़रमाई गई है कि आप उनके ईमान न लाने से दुखी न हों.

सूरए आले इमरान – तीसरा रूकू

सूरए आले इमरान – तीसरा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,
वो जो अल्लाह की आयतों से इन्कारी होते और पैगम्बरों को नाहक़ शहीद करते (1)
और इन्साफ़ का हुक्म करने वालों को क़त्ल करते हैं उन्हें ख़ुशखबरी दो दर्दनाक अज़ाब की (21) ये हैं वो जिनके कर्म अकारत गए दुनिया और आख़िरत में (2)
और उनका कोई मददगार नहीं (3)(22)
क्या तुमने उन्हें न देखा जिन्हें किताब का एक हिस्सा मिला(4)
अल्लाह की किताब की तरफ़ बुलाए जाते हैं कि वह उनका फ़ैसला करे फिर इनमें का एक दल उससे मुंह फेर कर फिर जाता है (5)(23)
यह साहस (6)
उन्हें इसलिये हुआ कि वो कहते हें कभी हमें आग न छुएगी मगर गिनती के दिनों(7)
और उनके दीन में उन्हें धोखा दिया उस झूठ ने जो बांधते थे(8) (24)
तो कैसी होगी जब हम उन्हें इकट्ठा करेंगे उस दिन के लिये जिसमें शक नहीं (9)
और हर जान को उसकी कमाई पूरी भर दी जाएगी और उनपर जुल्म न होगा (25)
यूं अर्ज़ कर ऐ अल्लाह मुल्क के मालिक तू जिसे चाहे सल्तनत दे और जिसे चाहे सल्तनत छीन ले और जिसे चाहे इज़्ज़त दे और जिसे चाहे ज़िल्लत दे, सारी भलाई तेरे ही हाथ है बेशक तू सब कुछ कर सकता है (10)(26)
तू दिन का हिस्सा रात में डाले और रात का हिस्सा दिन में डाले(11)
और  मुर्दा से ज़िन्दा निकाले और ज़िन्दा से मुर्दा निकाले (12)
और जिसे चाहे बेगिनती दे (27) मुसलमान काफ़िरों को अपना दोस्त न बना लें मुसलमानों के सिवा (13)
और जो ऐसा करेगा उसे अल्लाह से कुछ इलाका़ नहीं , मगर यह कि तुम उनसे कुछ डरो (14)
और अल्लाह तुम्हें अपने क्रोध से डराता है और अल्लाह ही की तरफ़ फिरना है(28) तुम फ़रमादो कि अगर तुम अपने जी की बात छुपाओ या ज़ाहिर करो, अल्लाह को सब मालूम है और जानता है जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है और हर चीज़ पर अल्लाह का क़ाबू है (29) जिस दिन हर जान ने जो भला काम किया हाज़िर पाएगी (15)
और जो बुरा काम किया उम्मीद करेगी काश मुझमें और इसमें दूर का फ़ासला होता (16)
और अल्लाह तुम्हें अपने अज़ाब से डराता है और अल्लाह बन्दों पर मेहरबान है (30)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – तीसरा रूकू

(1) जैसा कि बनी इस्त्राईल ने सुबह को एक साअत के अन्दर तैंतालीस नबियों को क़त्ल किया फिर जब उनमें से एक सौ बारह आबिदों यानी नेक परहेज़गार लोगो ने उठकर उन्हें नेकियों का हुक्म दिया और गुनाहों से रोका, उसी शाम उन्हें भी क़त्ल कर दिया. इस आयत में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़माने के यहूदियां को फटकार है, क्योंकि वो अपने पूर्वजों के ऐसे बदतरीन कर्म से राज़ी हैं.

(2) इस आयत से मालूम हुआ कि नबियों की शान में बेअदबी कुफ़्र है. और यह भी कि कुफ़्र से तमाम कर्म अकारत हो जाते हैं.

(3) कि उन्हें अल्लाह के अज़ाब से बचाए.

(4) यानी यहूदी, कि उन्हें तौरात शरीफ़ के उलूम और अहकाम सिखाए गए थे, जिनमें सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की विशेषताएं और अहवाल और इस्लाम की सच्चाई का बयान है. इससे लाज़िम आता था कि जब हुज़ूर तशरीफ़ फ़रमा हों और उन्हें क़ुरआने करीम की तरफ़ बुलाएं तो वो हुज़ूर पर और क़ुरआन शरीफ़ पर ईमान लाएं और उसके आदेशों का पालन करें, लेकिन उनमें से बहुतों ने ऐसा नहीं किया. इस पहलू से मिनल किताब से तौरात और किताबुल्लाह से क़ुरआन शरीफ़ मुराद है.

(5) इस आयत के उतरने की परिस्थितियों में हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से एक रिवायत आई है कि एक बार सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम बैतुल मक़दिस में तशरीफ़ ले गए और वहाँ यहूदियों को इस्लाम की तरफ़ बुलाया. नुएम इब्ने अम्र और हारिस इब्ने ज़ैद ने कहा कि ऐ मुहम्मद ( सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम) आप किस दीन पर है ? फ़रमाया, मिल्लते इब्राहीमी पर. वो कहने लगे, हज़रत इब्राहीम तो यहूदी थे. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया तौरात लाओ, अभी हमारे तुम्हारे बीच फ़ैसला हो जाएगा. इसपर न जमे और इन्कारी हो गए. इस पर यह आयते करीमा नाज़िल हुई. इस पहलू से आयत में किताबुल्लाह से तौरात मुराद है. इन्हीं हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से एक रिवायत यह भी है कि ख़ैबर के यहूदियों में से एक मर्द ने एक औरत के साथ बलात्कार किया था और तौरात में ऐसे गुनाह की सज़ा पत्थर मार मार कर हलाक कर देना है. लेकिन चूंकि ये लोग यहूदियों में ऊंचे ख़ानदान के थे, इसलिये उन्होंने उनका संगसार करना गवारा न किया और इस मामले को इस उम्मीद पर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के पास लाए कि शायद आप पत्थरों से हलाक करने का हुक्म न दें. मगर हुज़ूर ने उन दोनों को संगसार करने का हुक्म दिया. इस पर यहूदी ग़ुस्से में आ गए और कहने लगे कि इस गुनाह की यह सज़ा नहीं. आपने ज़ुल्म किया. हुज़ूर ने फ़रमाया, फ़ैसला तौरात पर रखो. कहने लगे यह इन्साफ़ की बात है. तौरात मंगाई गई और अब्दुल्लाह बिन सूरिया बड़े यहूदी आलिम ने उसको पढ़ा. उसमे संगसार करने का जो हुक्म था, उस को छोड़ गया. हज़रत अब्दुल्लाह बिन सलाम ने उसका हाथ हटाकर आयत पढ़ दी. यहूदी बहुत ज़लील हुए और वो यहूदी मर्द औरत हुज़ूर के हुक्म से संगसार किये गए. इस पर यह आयत उतरी.

(6) अल्लाह की किताब से मुंह फेरने की.

(7) यानी चालीस दिन या एक हफ़्ता, फिर कुछ ग़म नहीं.

(8) और उनका यह क़ौल था कि हम अल्लाह के बेटे हैं और उसके प्यारे हैं, वह हमें गुनाहों पर अज़ाब न करेगा, मगर बहुत थोड़ी मुद्दत के लिये.

(9) और वह क़यामत का दिन है.

(10) फ़त्हे मक्का के वक़्त सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपनी उम्मत को मुल्के फ़ारस और रोम की सल्तनत का वादा दिया तो यहूदी और मुनाफ़िक़ों ने उसको असम्भव समझा और कहने लगे, कहाँ मुहम्मद और कहाँ फ़ारस और रोम के मुल्क. वो बड़े ज़बरदस्त और निहायत मज़बूत हैं. इस पर यह आयते करीमा उतरी. और आख़िरकार हुज़ूर का वह वादा पूरा होकर रहा.

(11) यानी कभी रात को बढ़ाए और दिन को घटाए और कभी दिन को बढ़ाकर रात को घटाए. यह उसकी क़ुदरत है, तो फ़ारस और रोम से मुल्क लेकर मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ग़ुलामों को अता करना उसकी ताक़त से क्या दूर है.

(12) मुर्दे से ज़िन्दा का निकालना इस तरह है जसे कि ज़िन्दा इन्सान को बेजान नुत्फ़े से और चिड़िया के ज़िन्दा बच्चे को बेरूह अण्डे से, और ज़िन्दा दिल मूमिन को मुर्दा दिल क़ाफ़िर से, और ज़िन्दा इन्सान से बेजान नुत्फ़े और ज़िन्दा चिड़िया से बेजान अण्डे और ज़िन्दा दिल मूमिन से मुर्दा दिल काफ़िर.

(13) हज़रत उबादा बिन सामित ने अहज़ाब की जंग के दिन सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से अर्ज़ किया कि मेरे साथ पाँच सौ यहूदी है जो मेरे हिमायती हैं. मेरी राय है कि मैं दुश्मन के मुक़ाबले उनसे मदद हासिल करूं. इस पर यह आयत उतरी और काफ़िरों को दोस्त और मददगार बनाने से मना फ़रमाया गया. (14) काफ़िरों से दोस्ती और महब्बत मना और हराम है, उन्हें राज़दार बनाना, उनसे व्यवहार करना नाजायज़ है. अगर जान या माल का डर हो तो ऐसे वक़्त में सिर्फ़ ज़ाहिरी बर्ताव जायज़ है.

(15) यानी क़यामत के दिन हर नफ़्स को कर्मों की जज़ा यानी बदला मिलेगा और उसमें कुछ कमी व कोताही न होगी. (16)

सूरए आले इमरान – चौथा रूकू

सूरए आले इमरान – चौथा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,
ऐ मेहबूब, तुम फ़रमादो कि लोगो अगर तुम अल्लाह को दोस्त रखते हो तो मेरे फ़रमाँबरदार हो जाओ अल्लाह तुम्हें दोस्त रखेगा(1)
और तुम्हारे गुनाह बख़्श देगा और अल्लाह बख़्शने वाला मेहरबान है (31) तुम फ़रमादो कि हुक्म मानो अल्लाह और रसूल का (2)
फिर अगर वो मुंह फेरें तो अल्लाह को ख़ुश नहीं आते काफ़िर (32) बेशक अल्लाह ने चुन लिया आदम  और नूह और इब्राहीम की सन्तान और इमरान की सन्तान को सारे जहान से (3)(33)
यह एक नस्ल है एक दूसरे से (4)
और अल्लाह सुनता जानता है (34) जब इमरान की बीबी ने अर्ज़ की (5)
ऐ रब मेरे में मन्नत मानती हूँ  जो मेरे पेट में है कि ख़ालिस तेरी ही ख़िदमत में रहे(6)
तो तू मुझसे क़ुबूल करले बेशक तू ही सुनता जानता (35) फिर जब उसे जना बोली ऐ रब मेरे यह तो मैंने लड़की जनी (7)
और अल्लाह को ख़ूब मालूम है जो कुछ वह जनी और वह लड़का जो उसने मांगा इस लड़की सा नहीं (8)
और में ने उसका नाम मरयम रखा(9)
और मैं उसे और उसकी  औलाद को तेरी पनाह में देती हूँ  रांदे हुए शैतान से (36) तो उसे उसके रब ने अच्छी तरह क़ुबूल किया (10)
और उसे अच्छा परवान चढ़ाया (11)
और उसे ज़करिया की निगहबानी में दिया जब ज़करिया उसके पास उसकी नमाज़ पढ़ने की जगह जाते उसके पास नया रिज़्क (जीविका) पाते (12)
कहा ऐ मरयम यह तेरे पास कहां से आया बोली वह अल्लाह के पास से है बेशक अल्लाह जिसे चाहे बे गिनती दे (13)(37)
यहाँ (14)
पुकारा ज़करिया ने अपने रब को बोला ऐ रब मेरे मुझे अपने पास से दे सुथरी औलाद बेशक तू ही है दुआ सुनने वाला (38)
तो फ़रिश्तों ने उसे आवाज़ दी और वह अपनी नमाज़ की जगह खड़ा नमाज़ पढ़ रहा था(15)
बेशक अल्लाह आपको खु़शख़बरी देता है यहया की जो अल्लाह की तरफ़ के एक कलिमे की (16)
पुष्टि करेगा और सरदार (17)
हमेशा के लिये औरतों से बचने वाला और नबी हमारे ख़ासों से (18)(39)
बोला ऐ मेरे रब मुझे लड़का कहां से होगा मुझे तो पहुंच गया बुढ़ापा (19)
और मेरी  औरत बांझ(20)
फ़रमाया अल्लाह यूं ही करता है जो चाहे (21)(40)
अर्ज़ की ऐ मेरे रब मेरे लिये कोई निशानी कर दे (22)
फ़रमाया तेरी निशानी यह है कि तीन दिन तू लोगों से बात न करे मगर इशारे से और अपने रब की बहुत याद कर (23)
और कुछ दिन रहे और तड़के उसकी पाकी बोल (41)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – चौथा रूकू

(1) इस आयत से मालूम हुआ कि अल्लाह की महब्बत का दावा जब ही सच्चा हो सकता है जब आदमी सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का अनुकरण करने वाला हो और हुज़ूर की इताअत इख़्तियार करे. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम क़ुरैश के पास ठहरे जिन्होंने ख़ानए काबा में बुत स्थापित किये थे और उन्हें सजा सजा कर उनको सिज्दा कर रहे थे. हुज़ूर ने फ़रमाया, ऐ क़ुरैश, ख़ुदा की क़सम तुम अपने पूर्वजों हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल के दीन के ख़िलाफ़ हो गए. क़ुरैश ने कहा, हम इन बुतों को अल्लाह की महब्बत में पूजते हैं ताकि ये हमें अल्लाह से क़रीब करें. इस पर यह आयत उतरी और बताया गया कि अल्लाह की महब्बत का दावा सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के अनुकरण और फ़रमाँबरदारी के बिना क़ाबिले क़ुबूल नहीं. जो इस दावे का सुबूत देना चाहे, हुज़ूर की ग़ुलामी करे और हुज़ूर ने बुतों को पूजने से मना फ़रमाया, तो बुत परस्ती करने वाला हुज़ूर का नाफ़रमान और अल्लाह की महब्बत के दावे में झूटा है.

(2) यही अल्लाह की महब्बत की निशानी है और अल्लाह तआला की इताअत रसूल के अनुकरण के बिना नहीं हो सकती. बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस में है, जिसने मेरी नाफ़रमानी की उसने अल्लाह की नाफ़रमानी की.

(3) यहूदियों ने कहा था कि हम हज़रत इब्राहीम व इसहाक़ व याकूब अलैहिमुस्सलाम की औलाद से हैं और उन्हीं के दीन पर हैं. इस पर यह आयत उतरी. और बता दिया गया कि अल्लाह तआला ने इन हज़रात को इस्लाम के साथ बुज़ुर्गी अता फ़रमाई थी और तुम ऐ यहूदियों, इस्लाम पर नहीं हो, तुम्हारा यह दावा ग़लत है.

(4) उनमें आपस में नस्ल के सम्बन्ध भी है और आपस में ये हज़रात एक दूसरे के सहायक और मददगार भी.

(5) इमरान दो हैं, एक इमरान बिन यसहूर बिन फ़ाहिस बिन लावा बिन याक़ूब, ये तो हज़रत मूसा व हारून के वालिद हैं, दूसरे इमरान बिन मासान, यह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की वालिदा मरयम के वालिद हैं. दोनों इमरानों के बीच एक हज़ार आठ सौ साल का अन्तर है. यहाँ दूसरे इमरान मुराद हैं. उनकी बीवी साहिबा का नाम हन्ना बिन्ते फ़ाक़ूज़ा है. यह मरयम की वालिदा हैं.

(6) और तेरी इबादत के सिवा दुनिया का कोई काम उसके मुतअल्लिक़ न हो. बैतुल मक़दिस की ख़िदमत इसके ज़िम्मे हो. उलमा ने वाक़िआ इस तरह ज़िक्र किया है कि हज़रत ज़करिया और इमरान दोनों हमज़ुल्फ़ थे, यानी दो सगी बहनें एक एक के निकाह में थीं. फ़ाक़ूज़ा की बेटी ईशाअ जो हज़रत यहया की वालिदा हैं और उनकी बहन हन्ना जो फ़ाक़ूज़ा की दूसरी बेटी और हज़रत मरयम की वालिदा है. वह इमरान की बीबी थीं. एक ज़माने तक हन्ना के औलाद नहीं हुई यहाँ तक कि बुढ़ापा आ गया और मायूसी हो गई. ये नेकों का ख़ानदान था और ये सब लोग अल्लाह के मक़बूल बन्दे थे. एक रोज़ हन्ना ने एक दरख़्त के साए में एक चिड़िया देखी जो अपने बच्चे को दाना चुगा रही थी. यह देखकर आपके दिल में औलाद का शौक़ पैदा हुआ और अल्लाह की बारगाह में दुआ की कि ऐ रब अगर तू मुझे बच्चा दे तो मैं उसे बैतुल मक़दिस का सेवक बनाऊं और इस ख़िदमत के लिये हाज़िर कर दूँ. जब वह गर्भवती हुई और उन्होंने यह नज़्र मान ली तो उनके शौहर ने फ़रमाया कि यह तुमने क्या किया. अगर लड़की हो गई तो वह इस क़ाबिल कहाँ है. उस ज़माने में लड़कों को बैतुल मक़दिस की ख़िदमत के लिये दिया जाता था और लड़कियाँ औरतों की क़ुदरती मजबूरियों और ज़नाना कमज़ोरियों और मर्दों के साथ न रह सकने की वजह से इस क़ाबिल नहीं समझी जाती थीं. इसलिये इन साहिबों को सख़्त फ़िक्र हुई. हन्ना की ज़चगी से पहले इमरान का देहान्त हो गया.

(7) हन्ना ने ये कलिमा ऐतिज़ार के तौर पर कहा और उनको हसरत व ग़म हुआ कि लड़की हुई तो नज़्र किस तरह पूरी हो सकेगी.

(8) क्योंकि यह लड़की अल्लाह तआला की अता है और उसकी मेहरबानी से बेटे से ज़्यादा बुज़ुर्गी रखने वाली है. यह बेटी हज़रत मरयम थीं और अपने ज़माने की औरतों में सबसे ज़्यादा ख़ूबसूरत और अफ़ज़ल थीं.

(9) मरयम के मानी हैं आबिदा यानी इबादत करने वाली.

(10) और नज़्र में लड़के की जगह हज़रत मरयम को क़ुबूल फ़रमाया. हन्ना ने विलादत के बाद हज़रत मरयम को एक कपड़े में लपेट कर बैतुल मक़दिस में पादरियों के सामने रख दिया. ये पादरी हज़रत हारून की औलाद में थे और बैतुल मक़दिस में इनका बड़ा मान था. चूंकि हज़रत मरयम उनके इमाम और उनकी क़ुरबानियों के सरदार की बेटी थीं और इल्म वालों का ख़ानदान था, इसलिये उन सब ने, जिनकी संख्या सत्ताईस थी, हज़रत मरयम को लेने और उनका पालन पोषण करने की अच्छा दिखाई. हज़रत ज़करिया ने फ़रमाया मैं इनका (मरयम का) सब से ज़्यादा हक़दार हूँ क्योंकि मेरी बीबी इनकी ख़ाला हैं. मामला इस पर ख़त्म हुआ कि क़ुरआ डाला जाए. क़ुरआ हज़रत ज़करिया ही के नाम पर निकला.

(11) हज़रत मरयम एक दिन में इतना बढ़ती थी जितना और बच्चे एक साल में.

(12) बे फ़स्ल मेवे जो जन्नत से उतरते और हज़रत मरयम ने किसी औरत का दूध न पिया.

(13) हज़रत मरयम ने छोटी उम्र में बात शुरू की, जबकि वह पालने में परवरिश पा रही थीं, जैसा कि उनके बेटे हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने भी पालने से ही कलाम फ़रमाया. यह आयत वलियों की करामतों अथवा चमत्कारों के सुबूत में है कि अल्लाह तआला उनके हाथों पर चमत्कार ज़ाहिर कर देता है. हज़रत ज़करिया ने जब यह देखा तो फ़रमाया जो पाक ज़ात मरयम को बेवक़्त बेफ़स्ल और बिना साधन के मेवे अता फ़रमाने की क्षमता रखती है, वह बेशक इस पर भी क़ादिर है कि मेरी बांझ बीबी को नई तंदुरूस्ती दे और मुझे इस बुढ़ापे की उम्र में उम्मीद टूट जाने के बाद भी बेटा अता फ़रमाएं. इसी ख़याल से आप ने दुआ की जिसका बयान अगली आयत में है.

(14) यानी बैतुल मक़दिस की मेहराब में दरवाज़े बन्द करके दुआ की.

(15) हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम बहुत बड़े विद्वान थे. अल्लाह के हुज़ूर क़ुरबानियाँ आप ही पेश करते थे और मस्जिद शरीफ़ में आपकी आज्ञा के बिना कोई दाख़िल नहीं हो सकता था. जिस वक़्त मेहराब में आप नमाज़ पढ़ रहे थे और बाहर आदमी दाख़िले की आज्ञा की प्रतीक्षा कर रहे थे, दर्वाज़ा बन्द था, अचानक आपने एक सफ़ेदपोश जवान देखा. वो हज़रत जिब्रील थे. उन्हों ने आपको बेटे की ख़ुशख़बरी सुनाई जो “अन्नल्लाहा युबश्शिरूका”  (बेशक अल्लाह आपको ख़ुशख़बरी देता है) में बयान फ़रमाई गई.

(16) “कलिमा” से मुराद मरयम के बेटे हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम हैं, कि उन्हें अल्लाह तआला ने “कुन” (होजा) फ़रमाकर बिना बाप के पैदा किया और उनपर सबसे पहले ईमान लाने और उनकी तस्दीक़ करने वाले हज़रत यहया हैं जो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम से उम्र में छ माह बड़े थे. ये दोनों ख़ाला ज़ाद भाई थे. हज़रत यहया की वालिदा अपनी बहन मरयम से मिलीं तो उनहें गर्भवती होने की सूचना दी. हज़रत मरयम ने फ़रमाया मैं भी गर्भ से हूँ. हज़रत यहया की वालिदा ने कहा ऐ मरयम मुझे मालूम होता है कि मेरे पेट का बच्चा तुम्हारे पेट के बच्चे को सज्दा करता है.

(17) सैय्यिद उस रईस को कहते है जो बुज़ुर्गी वाला हो और लोग उसकी ख़िदमत और इताअत करें. हज़रत यहया ईमान वालों के सरदार और इल्म, सहिष्णुता और दीन में उनके रईस अर्थात सरदार थे.

(18) हज़रत ज़करिया अलैहिस्सलाम ने आश्चर्य के साथ अर्ज़ किया.

(19) और उम्र एक सौ बीस साल की हो चुकी.

(20) उनकी उम्र अठानवे साल की. सवाल का मक़सद यह है कि बेटा किस तरह अता होगा, क्या मेरी जवानी लौटाई जाएगी और बीबी का बांझपन दूर किया जाएगा, या हम दोनों अपने हाल पर रहेंगे.

(21) बुढ़ापे में बेटा देना उसकी क़ुदरत से कुछ दूर नहीं.

(22) जिससे मुझे अपनी बीबी के गर्भ का समय मालूम हो ताकि मैं और ज़्यादा शुक्र और इबादत में लग जाऊं.

(23) चुनांचे ऐसा ही हुआ कि आदमियों के साथ बातचीत करने से ज़बाने मुबारक तीन रोज़ तक बन्द रही, अल्लाह का ज़िक्र तथा तस्बीह आप कर सकते थे. यह एक बड़ा चमत्कार है कि जिस आदमी के शरीर के सारे अंग सही और सालिम हों और ज़बान से तस्बीह और ज़िक्र अदा होती रहे मगर लोगों के साथ बातचीत न कर सके. और यह निशानी इसलिये मुक़र्रर की गई थी कि इस अज़ीम इनाम का शुक्र अदा करने के अलावा ज़बान और किसी बात में मशग़ूल न हो.

सूरए आले इमरान – पाँचवा रूकू

सूरए आले इमरान – पाँचवा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

और जब फ़रिश्ते ने कहा ऐ मरयम अल्लाह ने तुझे चुन लिया (1)
और ख़ूब सुथरा किया (2)
और आज सारे जहान की औरतों से तुझे पसन्द किया (3)(42)
ऐ मरयम अपने रब के हुज़ूर अदब से खड़ी हो (4)
और उस के लिये सिजदा कर और रूकू वालों के साथ रूकू कर (43) ये गै़ब की ख़बरें हैं कि हम ख़ुफिया तौर पर तुम्हें बताते हैं (5)
और तुम उनके पास न थे जब वो अपनी क़लमों से क़ुरआ (लाटरी) डालते थे कि मरयम किसकी परवरिश में रहे और तुम उनके पास न थे जब वो झगड़ रहे थे (6)(44)
और याद करो जब फ़रिश्तों ने मरयम से कहा कि ऐ  मरयम अल्लाह तुझे बशारत (ख़ुशख़बरी) देता है अपने पास से एक कलिमे की (7)
जिसका नाम है मसीह ईसा मरयम का बेटा, रूदार (प्रतापी) होगा(8)
दुनिया और आख़िरत में और क़ुर्ब (समीपता) वाला (9)(45)
और लोगों से बात करेगा पालने में (10)
और पक्की उम्र में (11)
और ख़ासों में होगा (46) बोली ऐ मेरे रब मेरे बच्चा कहां से होगा मुझे तो किसी शख़्स ने हाथ न लगाया(12)
फ़रमाया अल्लाह यूं ही पैदा करता है जो चाहे जब किसी काम का हुक्म फ़रमाए तो उससे यही कहता है कि हो जा वह फौरन हो जाता है(47) और सिखाएगा किताब और हिकमत (बोध) और तौरात और इंजील (48) और रसूल होगा बनी इस्राईल की तरफ़ यह फ़रमाता हुआ कि मैं तुम्हारे पास एक निशानी लाया हुँ (13) 
तुम्हारे रब की तरफ़ से कि मैं तुम्हारे लिये मिट्टी से परिन्द की मूरत बनाता हुँ फिर उसमें फूंक मारता हुँ तो वह फौरन परिन्द हो जाती है अल्लाह के हुक्म से(14)
और मैं शिफ़ा देता हुँ मादरज़ाद (पैदाइशी) अंधे और सफ़ेद दाग वाले को (15)
और मैं मुर्दें जिलाता हुँ अल्लाह के हुक्म से (16)
और तुम्हें बताता हुँ जो तुम खाते और जो अपने घरों में जमा कर रखते हो (17)
बेशक उन बातों में तुम्हारे लिये बड़ी निशानी है अगर तुम ईमान रखते हो (49) और पुष्टि करता आया हुँ अपने से पहली किताब तौरात की और इसलिये कि हलाल करूं तुम्हारे लिये कुछ वो चीज़े जो तुमपर हराम थी (18)
और मैं तुम्हारे पास तुम्हारे रब की तरफ़ से निशानी लाया हुँ तो अल्लाह से डरो और मेरा हुक्म मानो (50) बेशक मेरा तुम्हारा सबका रब अल्लाह है तो उसी को पूजो (19)
यह है सीधा रास्ता (51) फिर जब ईसा ने उनसे कुफ्र पाया (20)
बोला कौन मेरे मददगार होते हैं अल्लाह की तरफ़ हवारियों (अनुयाइयों) ने कहा (21)
हम ख़ुदा के दीन के मददगार हैं हम अल्लाह पर ईमान लाए और आप गवाह हो जाएं कि हम मुसलमान हैं(22) (52)
ऐ रब हमारे हम उस पर ईमान लाए जो तूने उतारा और रसूल के ताबे (अधीन) हुए तू हमें हक़ पर गवाही देने वालों में लिख ले (53)  और काफ़िरों ने मक्र (कपट) किया (23)
और अल्लाह ने उनके हलाक की छुपवां तदबीर (युक्ति) फ़रमाई और अल्लाह सबसे बेहतर छुपी तदबीर वाला है (24) (54)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – पाँचवा रूकू
(1) कि औरत होने के बावुजूद बैतुल मक़दिस की ख़िदमत के लिये भेंट में क़ुबूल फ़रमाया और यह बात उनके सिवा किसी औरत को न मिली. इसी तरह उनके लिये जन्नती खाना भेजना, हज़रत ज़करिया को उनका पालक बनाना, यह हज़रत मरयम की महानता का प्रमाण है.

(2) मर्द की पहुंच से और गुनाहों से और कुछ विद्वानों के अनुसार ज़नाना दोषों और मजबूरियों से.

(3) कि बग़ैर बाप के बेटा दिया और फ़रिश्तों का कलाम सुनाया.

(4) जब फ़रिश्तों ने यह कहा, हज़रत मरयम ने इतना लम्बा क़याम किया यानी इतनी देर तक नमाज़ में खड़ी रहीं कि आपके क़दमे मुबारक पर सूजन आ गई और पाँव फट कर ख़ून जारी हो गया.

(5) इस आयत से मालूम हुआ कि अल्लाह तआला ने अपने हबीब सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को ग़ैब के इल्म अता फ़रमाएं.

(6) इसके बावुजूद आपका इन घटनाओं की सूचना देना ठोस प्रमाण है इसका कि आपको अज्ञात का ज्ञान यानी ग़ैब की जानकारी अता फ़रमाई गई.

(7) यानी एक बेटे की.

(8) बड़ी शान और मान और ऊंचे दर्जे वाला.

(9) अल्लाह की बारगाह में.

(10) बात करने की उम्र से पहले.

(11) आसमान से उतरने के बाद. इस आयत से साबित होता है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम आसमान से ज़मीन की तरफ़ उतरेंगे जैसा कि हदीसों में आया है और दज्जाल को क़त्ल करेंगे.

(12) और क़ायदा यह है कि बच्चा औरत और मर्द के मिलाप से होता है तो मुझे बच्चा किस तरह अता होगा. निकाह से या यूंही बिना मर्द के.

(13) जो मेरे नबुव्वत के दावे की सच्चाई का प्रमाण है.

(14) जब हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने नबुव्वत का दावा किया और चमत्कार दिखाए तो लोगों ने दरख़ास्त की कि आप एक चिमगादड़ पैदा करें. आपने मिट्टी से चिमगादड़ की सूरत बनाई फिर उसमें फूंक मारी तो वह उड़ने लगी. चिमगादड़ की विशेषता यह है कि वह उड़ने वाले जानवरों में बहुत सम्पूर्ण और अजीबतर जानवर है, और अल्लाह की क़ुदरत पर दलील बनने से सबसे बढ़कर, क्योंकि वह बिना परों के उड़ती है, और दांत रखती है, और हंसती है, और उसकी मादा के छाती होती है, और बच्चा जनती है, जब कि उड़ने वाले जानवरों में ये बात नहीं है.

(15) जिसका कोढ़ आम हो गया हो और डांक्टर उसका इलाज करने से आजिज़ या अयोग्य हों. चूंकि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के ज़माने में तिब यानी चिकित्सा शास्त्र चरम सीमा पर था और इसके जानने वाले इलाज में चमत्कार रखते थे. इस लिये उनको उसी क़िस्म के चमत्कार दिखाए गए ताकि मालूम हो कि तिब के तरीक़े से जिसका इलाज सम्भव नहीं है उसको तंदुरूस्त कर देना यक़ीनन चमत्कार और नबी के सच्चे होने की दलील है. वहब का क़ौल है कि अकसर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के पास एक दिन में पचास-पचास हज़ार बीमारों का जमघट हो जाता था. उनमें जो चल सकता था वह ख़िदमत में हाज़िर होता था और जिसे चलने की ताक़त न होती थी उसके पास ख़ुद हज़रत तशरीफ़ ले जाते और दुआ फ़रमाकर उसको तन्दुरूस्त करते और अपनी रिसालत पर ईमान लाने की शर्त कर लेते.

(16) हज़रत इब्ने अब्बास ने फ़रमाया कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने चार व्यक्तियों को ज़िन्दा किया, एक आज़िर जिसको आपके साथ महब्बत थी. जब उसकी हालत नाज़ुक हुई तो उसकी बहन ने आपको सूचना दी मगर वह आपसे तीन दिन की दूरी पर था. जब आप तीन रोज़ में वहाँ पहुंचे तो मालूम हुआ कि उसके इन्तिक़ाल को तीन दिन हो चुके हैं. आपने उसकी बहन से फ़रमाया हमें उसकी क़ब्र पर ले चल. वह ले गई. आपने अल्लाह तआला से दुआ फ़रमाई. अल्लाह की क़ुदरत से आज़िर ज़िन्दा होकर क़ब्र से बाहर आया और लम्बे समय तक ज़िन्दा रहा और उसके औलाद हुई. एक बुढ़िया का लड़का, जिसका जनाज़ा हज़रत के सामने जा रहा था, आपने उसके लिये दुआ फ़रमाई, वह ज़िन्दा होकर जनाज़ा ले जाने वालों के कन्धों से उतर पड़ा. कपड़े पहने, घर आया, ज़िन्दा रहा, औलाद हुई. एक आशिर की लड़की शाम को मरी. अल्लाह तआला ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की दुआ से उसे ज़िन्दा किया. एक साम बिन नूह जिन की वफ़ात को हज़ारों बरस गुज़र चुके थे. लोगों ने ख़्वाहिश की कि आप उनको ज़िन्दा करें. आप उनके बताए से क़ब्र पर पहुंचे और अल्लाह तआला से दुआ की. साम ने सुना कोई कहने वाला कहता है “अजिब रूहुल्लाह” यह सुनते ही वो डर के मारे उठ खड़े हुए और उन्हें गुमान हुआ कि कयामत क़ायम हो गई. इस हौल से उनका आधा सर सफ़ेद हो गया, फिर वह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम पर ईमान लाए और उन्होंने हज़रत से दरख़ास्त की कि दोबारा उन्हें सकरात यानी जान निकलने की तकलीफ़ न हो, उसके बिना वापस किया जाए. चुनांचे उसी वक़्त उनका इन्तिक़ाल हो गया. और “बिइज़्निल्लाह”  (अल्लाह के हुक्म से) फ़रमाने में ईसाईयों का रद है जो हज़रत मसीह के ख़ुदा होने के क़ायल या मानने वाले थे.

(17) जब हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने बीमारों को अच्छा किया और मुर्दों को ज़िन्दा किया तो कुछ लोगो ने कहा कि यह तो जादू है, कोई और चमत्कार दिखाइये. तो आपने फ़रमाया कि जो तुम खाते हो और जो जमा कर रखते हो, मैं उसकी तुम्हें ख़बर देता हूँ. इसी से साबित हुआ कि ग़ैब के उलूम नबियों के चमत्कार हैं. और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के दस्ते मुबारक पर यह चमत्कार भी ज़ाहिर हुआ. आप आदमी को बता देते थे जो वह कल खा चुका और आज खाएगा और जो अगले वक़्त के लिये तैयार कर रखा है. आप के पास बच्चे बहुत से जमा हो जाते थे. आप उन्हें बताते थे कि तुम्हारे घर अमुक चीज़ तैयार हुई है, तुम्हारे घर वालों ने अमुक अमुक चीज़ खाई है, अमुक चीज़ तुम्हारे लिये उठा रखी है. बच्चे घर जाते,रोते, घर वालों से वह चीज़ मांगते, घर वाले वह चीज़ देते और उनसे कहते कि तुम्हें किसने बताया. बच्चे कहते हज़रत ईसा ने. तो लोगों ने अपने बच्चों को आपके पास आने से रोका और कहा वो जादूगर हैं, उनके पास न बैठो. और एक मकान में सब बच्चों को जमा कर दिया. हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम बच्चों को तलाश करते तशरीफ़ लाए तो लोगों ने कहा, यहाँ नहीं हैं. आपने फ़रमाया फिर इस मकान में कौन है. उन्होंने कहा, सुअर हैं. फ़रमाया, ऐसा ही होगा. अब जो दर्वाज़ा खोलते हैं तो सब सुअर ही सुअर थे. मतलब यह कि ग़ैब की ख़बरें देना नबियों का चमत्कार है और नबियों के माध्यम से बिना कोई आदमी ग़ैब की बातों पर सूचित नहीं हो सकता.

(18) जो हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम की शरीअत में हराम थीं जैसे कि ऊंट का गोश्त, मछली, चिड़ियाँ.

(19) यह अपने बन्दे होने का इक़रार और अपने ख़ुदा होने का इन्कार है. इसमें ईसाइयों का रद है.

(20) यानी मूसा अलैहिस्सलाम ने देखा कि यहूदी अपने कुफ़्र पर क़ायम हैं और आपके क़त्ल का इरादा रखते हैं और इतनी खुली निशानियों और चमत्कारों से प्रभावित नहीं होते और इसका कारण यह था कि उन्होंने पहचान लिया था कि आप ही वह मसीह हैं जिनकी बशारत तौरात में दी गई है और आप उनके दीन को स्थगित करेंगे तो जब हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम ने दावत का इज़हार फ़रमाया तो यह उनको बड़ा नागवार गुज़रा और वो आपको तकलीफ़ पहुंचाने और मार डालने पर तुल गए और आपके साथ उन्होंने कुफ़्र किया.

(21) हवारी वो महब्ब्त और वफ़ादारी वाले लोग हैं जो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के दीन के मददगार थे और आप पर पहले ईमान लाए. ये बारह लोग थे.

(22) इस आयत से ईमान और इस्लाम के एक होने की दलील दी जाती है. और यह भी मालूम होता है कि पहले नबियों का दीन इस्लाम था न कि यहूदियत या ईसाइयत.

(23) यानी बनी इस्त्राईल के काफ़िरों ने हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के साथ कपट किया कि धोखे के साथ आपके क़त्ल का इन्तिज़ाम किया और अपने एक आदमी को इस काम पर लगा दिया.

(24) अल्लाह तआला ने उनके कपट का यह बदला दिया कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को आसमान पर उठा लिया और उस आदमी को हज़रत की शक्ल दे दी जो उनके क़त्ल के लिये तैयार हुआ था. चुनांचे यहूदियों ने उसको इसी शुबह पर क़त्ल कर दिया. “मक्र” शब्द अरब में “सत्र” यानी छुपाने के मानी में है, इसीलिये छुपवाँ तदबीर को भी “मक्र” कहते हैं. और वह तदबीर अगर अच्छे मक़सद के लिये हो तो अच्छी और किसी बुरे काम के लिये हो तो नापसन्दीदा होती है. मगर उर्दू ज़बान में यह शब्द धोखे के मानी में इस्तेमाल होता है. इसलिये अल्लाह के बारे में हरगिज़ न कहा जाएगा और अब चूंकि अरबी में भी यह शब्द बुरे मतलब में इस्तेमाल होने लगा है इसलिये अरबी में भी अल्लाह की शान में इसका इस्तेमाल जायज़ नहीं. आयत में जहाँ कहीं आया वह छुपवाँ तदबीर के मानी में है.

सूरए आले इमरान – छटा रूकू

सूरए आले इमरान – छटा रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

याद करो जब अल्लाह ने फ़रमाया ऐ ईसा मैं तुझे पूरी उम्र पहुंचाऊंगा (1)
और तुझे अपनी तरफ़ उठा लूंगा (2)
और तुझे काफ़िरों से पाक कर दूंगा और तेरे मानने वालों को (3)
क़यामत तक तेरा इन्कार करने वालों पर (4)
ग़लबा (आधिपत्य) दूंगा फिर तुम सब मेरी तरफ़ पलट कर आओगे तो मैं तुम में फै़सला फ़रमादूंगा जिस बात में झगड़ते हो (55) तो वो जो काफ़िर हूए मैं उन्हें दुनिया व आख़िरत में सख़्त अज़ाब करूंगा और उनका कोई मददगार न होगा (56) और वो जो ईमान लाए और अच्छे काम किये अल्लाह उनका नेग उन्हें भरपूर देगा और ज़ालिम अल्लाह को नहीं भाते(57)
यह हम तुम पर पढ़ते हैं कुछ आयतें और हिक़मत (बोध) वाली नसीहत (58) ईसा की कहावत अल्लाह के नज़दीक आदम की तरह है (5)
उसे मनी से बनाया फिर फ़रमाया होजा वह फ़ौरन हो जाता है (59) ऐ सुनने वाले यह तेरे रब की तरफ़ से हक़ है तू शक वालों में न होना (60) फिर ऐ मेहबूब, जो तुम से ईसा के बारे में हुज्जत (बहस) करें बाद इसके कि तुम्हें इल्म आचुका तो उन से फ़रमादो आओ हम बुलाएं अपने बेटे और तुम्हारे बेटे, और अपनी औरतों और तुम्हारी औरतों  और अपनी जानें और तुम्हारी जानें फिर मुबाहिला करें तो झूटों पर अल्लाह की लानत डालें(6)(61)
यही बेशक सच्चा बयान है (7)
और अल्लाह के सिवा कोई मअबूद (पूजनीय) नहीं (8)
और बेशक अल्लाह ही ग़ालिब है हिकमत वाला (62)फिर अगर वो मुंह फेरें तो अल्लाह फ़सादियों को जानता है (63)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – छटा रूकू
(1) यानी तुम्हें कुफ़्फ़ार क़त्ल न कर सकेंगे. (मदारिक वग़ैरह)

(2) आसमान पर बुज़ुर्गी और करामत का महल और फ़रिश्तों के रहने की जगह में बिना मौत के. हदीस शरीफ़ है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, हज़रत ईसा मेरी उम्मत पर ख़लीफ़ा होकर उतरेंगे, सलीब तोड़ेंगे, सुअरों को क़त्ल करेंगे, चालीस साल रहेंगे, निकाह फ़रमाएंगे, औलाद होगी, फिर आप का विसाल यानी देहान्त होगा. वह उम्मत कैसे हलाक हो जिसके अव्वल मैं हूँ और आख़िरत ईसा, और बीच में मेरे घर वालों में से. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम दमिश्क़ में पूर्वी मिनारे पर उतरेंगे. यह भी आया है कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मुबारक हुजरे में दफ़्न होंगे.

(3) यानी मुसलमानों को, जो आपकी नबुव्वत की तस्दीक़ करने वाले है.

(4) जो यहूदी है.

(5) नजरान के ईसाइयों का एक प्रतिनिधि मण्डल सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में आया और वो लोग हुज़ुर से कहने लगे आप गुमान करते हैं कि ईसा अल्लाह के बन्दे है. फ़रमाया हाँ, उसके बन्दे और उसके रसूल हैं और उसके कलिमे, जो कुंवारी बुतूल अज़रा की तरफ़ भेजे गए. ईसाई यह सुनकर बहुत ग़ुस्से में आए और कहने लगे, ऐ मुहम्मद, क्या तुमने कभी बे बाप का इन्सान देखा है. इससे उनका मतलब यह था कि वह ख़ुदा के बेटे है (अल्लाह की पनाह). इस पर यह आयत उतरी और यह बताया गया कि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम सिर्फ़ बग़ैर बाप ही के हुए और हज़रत आदम अलैहिस्सलाम तो माँ और आप दोनों के बग़ैर मिट्टी से पैदा किये गए तो जब उन्हें अल्लाह का पैदा किया हुआ मानते हो तो हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम को अल्लाह का पैदा किया हुआ और उसका बन्दा मानने में क्या हिचकिचाहट और आशचर्य है.

(6) जब रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने नजरान के ईसाईयों को यह आयत पढ़कर सुनाई और मुबाहिले की दावत दी तो कहने लगे कि हम ग़ौर और सलाह करलें, कल आपको जवाब देंगे, जब वो जमा हुए तो उन्होंने अपने सबसे बड़े आलिम और सलाहकार व्यक्ति आक़िब से कहा ऐ अब्दुल मसीह, आपकी क्या राय है. उसने कहा तुम पहचान चुके हो कि मुहम्मद अल्लाह के भेजे हुए रसूल ज़रूर हैं. अगर तुमने उनसे मुबाहिला किया तो सब हलाक हो जाओगे. अब अगर ईसाइयत पर क़ायम रहना चाहते हो तो उन्हें छोड़ो और घर लौट चलो. यह सलाह होने के बाद वो रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की ख़िदमत में हाज़िर हुए तो उन्होंने देखा कि हुज़ूर की गोद में तो इमाम हुसैन हैं और दस्ते मुबारक में हसन का हाथ और फ़ातिमा और अली हुज़ूर के पीछे हैं (रदियल्लाहो अन्हुम) और हुज़ूर उन सब से फ़रमा रहे हैं कि जब मैं दुआ करूं तो तुम सब आमीन कहना. नजरान के सबसे बड़े आलिम (पादरी) ने जब इन हज़रात को देखा तो कहने लगा कि ऐ ईसाइयो, मैं ऐसे चेहरे देख रहा हूँ कि अगर ये लोग अल्लाह से पहाड़ को हटाने की दुआ करें तो अल्लाह पहाड़ को हटा दे. इनसे मुबाहिला न करना, हलाक हो जाओगे और क़यामत तक धरती पर कोई ईसाई बाक़ी न रहेगा. यह सुनकर ईसाइयों ने हुज़ूर की ख़िदमत में अर्ज़ किया कि मुबाहिले की तो हमारी राय नहीं है. अन्त में उन्होंने जिज़िया देना मन्ज़ूर किया मगर मुबाहिले के लिये तैयार न हुए. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, उसकी क़सम जिसके दस्ते क़ुदरत में मेरी जान है, नजरान वालों पर अज़ाब क़रीब ही आ चुका था, अगर वो मुबाहिला करते तो बन्दरों और सुअरों की सूरत में बिगाड़ दिये जाते और जंगल आग से भड़क उठता और नजरान और वहाँ की निवासी चिड़ियाँ तक नाबूद हो जातीं और एक साल के अर्से में सारे ईसाई हलाक हो जाते.

(7) कि हज़रत ईसा अल्लाह के बन्दे और उसके रसूल हैं और उनका वह हाल है जो ऊपर बयान हो चुका.

(8) इसमें ईसाइयों का भी रद है और सारे मुश्रिकों का भी.

सूरए आले इमरान – सातवाँ रूकू

सूरए आले इमरान – सातवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

तुम फ़रमाओ , ऐ किताबियों ऐसे कलिमे की तरफ़ आओ जो हम में तुम में यकसँ (समान) है(1)
यह कि इबादत न करें मगर ख़ुदा की और उसका शरीक किसी को न करें (2)
और हम में कोई एक दूसरे को रब न बना ले अल्लाह के सिवा (3)
फिर अगर वो न माने तो कह दो तुम गवाह रहो कि हम मुसलमान हैं (64) ऐ किताब वालो इब्राहीम के बारे में क्यों झगड़ते हो, तौरात और इंजील तो न उतरी मगर उनके बाद तो क्या तुम्हें अक़ल नहीं (4) (65)
सुनते हो यह जो तुम हो (5)
उसमें झगड़े जिसकी तुम्हें जानकारी थी (6)
तो उस में (7)
क्यों झगड़ते हो जिसकी तुम्हें जानकारी ही नहीं और अल्लाह जानता है और तुम नहीं जानते (8)
(66) 
इब्राहीम यहूदी न थे और न ईसाई बल्कि हर बातिल (असत्य) से अलग मुसलमान थे और मुश्रिकों  से न थे (9) (67)
बेशक सब लोगों से इब्राहीम के ज़्यादा हक़दार वो थे जो उनके मानने वाले हुए (10)
और यह नबी (11)
और ईमान वाले (12)
और ईमान वालों का वाली (सरपरस्त) अल्लाह है (68)किताबियों का एक दल दिल से चाहता है कि किसी तरह तुम्हें गुमराह करदें और वो अपने आप को गुमराह करते हैं और उन्हें शऊर (आभास) नहीं (13)(69)
ऐ किताबियों अल्लाह की आयतों से क्यों कुफ्र करते हो हालांकि तुम ख़ुद गवाह हो(14) (70)
ऐ किताबियों हक़ में बातिल क्यों मिलाते हो (15) और हक़ क्यों छुपाते हो हालांकि तुम्हें ख़बर है (71)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – सातवाँ रूकू

(1) और क़ुरआन, तौरात और इन्जील इसमें मुख़्तलिफ़ नहीं हैं.

(2) न हज़रत ईसा को, न हज़रत उज़ैर को, न किसी और को.

(3) जैसा कि यहूदियों और ईसाइयों ने पादरियों और रब्बियों को बनाया कि उन्हें सज्दा करते और उनकी पूजा करते. (जुमल)

(4) नजरान के ईसाइयों और यहूदियों के विद्वानों में बहस हुई. यहूदियों का दावा था कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम यहूदी थे और ईसाइयों का दावा था कि आप ईसाई थे. यह झगड़ा बहुत बढ़ा तो दोनों पक्षों ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को हकम यानी मध्यस्त बनाया और आप से फ़ैसला चाहा. इस पर यह आयत उतरी और तौरात के विद्वानों और इन्जील के जानकारों पर उनकी अज्ञानता ज़ाहिर कर दी गई कि उनमें से हर एक का दावा उनकी जिहालत की दलील है. यहूदियत व ईसाइयत तौरात और इंजील उतरने के बाद पैदा हुई और हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम का ज़माना, जिन पर तौरात उतरी, हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम से सदियों बाद का है और हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम, जिन पर इंजील उतरी, उनका ज़माना हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम के बाद दो हज़ार बरस के क़रीब हुआ है और तौरात व इंजील किसी में आपको यहूदी या ईसाई नहीं कहा गया है, इसके बावजुद आपकी निस्बत यह दावा जिहालत और मूर्खता की चरम सीमा है.

(5) ऐ किताब वालो, तुम.

(6) और तुम्हारी किताबों में इसकी ख़बर दी गई थी यानी आख़िरी ज़माने के नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के ज़ाहिर होने और आपकी तारीफ़ और विशेषताओ की. जब ये सब कुछ पहचान कर भी तुम हुज़ूर पर ईमान न लाए और तुमने इसमें झगड़ा किया.

(7) यानी हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को यहूदी या ईसाई कहते हैं.

(8) और वास्तविकता यह है कि.

(9) तो न किसी यहूदी या ईसाई का अपने आपको दीन में हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की तरफ़ मन्सूब करना या जोड़ना सही हो सकता है, न किसी मुश्रिक का. कुछ मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि इसमें यहूदियों और ईसाईयों पर ऐतिराज है कि वो मुश्रिक हैं.
(10) और उनकी नबुव्वत के दौर में उन पर ईमान लाए और उनकी शरीअत का पालन किया.

(11) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(12) और आपकी उम्मत के लोग.

(13) यह आयत हज़रत मआज़ बिन जबल और हुज़ैफ़ा बिन यमान और अम्मार बिन यासिर के बारे में उतरी जिनको यहूदी अपने दीन में दाख़िल करने की कोशिश करते और यहूदियत की दावत देते थे और इसमें बताया गया कि यह उनकी खाली हविस है, वो उन्हें गुमराह न कर सकेंगे.

(14) और तुम्हारी किताबों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की तारीफ़ और विशेषताएं मौजूद हैं और तुम जानते हो कि वो सच्चे नबी है और उनका दीन सच्चा दीन है.

(15) अपनी किताबों में फेर बदल करके.

सूरए आले इमरान – पन्द्रहवाँ रूकू

सूरए आले इमरान – पन्द्रहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

और मुहम्मद तो एक रसूल हैं (1)
उनसे पहले और रसूल हो चुके (2)
तो क्या वो इन्तिक़ाल फ़रमाएं या शहीद हों तो तुम उल्टे पाँव फिर जाओगे  और जो उल्टे पावँ फिरेगा अल्लाह का कुछ नुक़सान न करेगा और जल्द ही अल्लाह शुक्र वालों को सिला (इनाम) देगा (3) (144)
और कोई जान ख़ुदा के हुक्म के बिना नहीं मर सकती (4)
सब का वक़्त लिखा रखा है (5)
और जो दुनिया का ईनाम चाहे  (6)
हम उसमें से उसे दें और जो आख़िरत का ईनाम चाहे, हम उसमें से उसे दें (7)
और क़रीब है कि हम शुक्र वालों को सिला अता करें (145) और कितने ही नबियों ने जिहाद किया उसके साथ बहुत ख़ुदा वाले थे तो सुस्त न पड़े उन मुसीबतों में जो अल्लाह की राह में उन्हें पहुंचीं और न कमज़ोर हुए और न दबे (8)
और सब्र वाले अल्लाह को मेहबूब हैं (146)  और  वो कुछ भी न कहते थे सिवा इस दुआ के (9)
कि ऐ रब हमारे बख़्श दे हमारे गुनाह और जो ज़्यादतियाँ  हमने अपने काम में कीं (10)
और हमारे क़दम जमा दे और हमें काफ़िर लोगों पर मदद दे (11)(147)
तो अल्लाह ने उन्हें दुनिया का ईनाम दिया (12)
और आख़िरत के सवाब की ख़ुबी (13)
और नेकी वो अल्लाह के प्यारे हैं (148)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – पन्द्रहवाँ रूकू

(1) और रसूलों के भेजे जाने का उद्देश्य रिसालत की तबलीग़ और हुज्जत का लाज़िम कर देना है, न कि अपनी क़ौम के बीच हमेशा मौजूद रहना.

(2) और उनके मानने वाले उनके बाद उनके दीन पर बाक़ी रहे. उहद की लड़ाई में जब काफ़िरों ने पुकारा कि मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम शहीद हो गए और शैतान ने यह झूटी अफ़वाह मशहूर की तो सहाबा को बहुत बेचैनी हुई और उनमें से कुछ लोग भाग निकले. फिर जब पुकार लगाई गई कि रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तशरीफ़ रखते हैं तो सहाबा की एक जमाअत वापस आई. हुज़ूर ने उन्हें इस तरह भाग जाने पर बुरा भला कहा. उन्हों ने अर्ज़ किया कि हमारे माँ बाप आप पर क़ुर्बान हों, आपकी शहादत की ख़बर सुनकर हमारे दिल टूट गए और हमसे ठहरा न गया. इस पर यह आयत उतरी और फ़रमाया गया कि नबियों के बाद भी उम्मतों पर उनके दीन का अनुकरण लाज़िम रहता है. तो अगर ऐसा होता भी तो हुज़ूर के दीन का पालन और उसकी हिमायत लाज़िम रहती.

(3) जो न फिरे और अपने दीन पर जमा रहे. उनको शुक्र करने वाले फ़रमाया क्योंकि उन्होंने अपने डटे रहने से इस्लाम की नेअमत का शुक्र अदा किया. हज़रत अली मुर्तज़ा रदियल्लाहो अन्हो फ़रमाते थे कि हज़रत अबू बक्र सिद्दीक़ रदियल्लाहो अन्हो शुक्र करने वालों के अमीन हैं.

(4) इसमें जिहाद की तरग़ीब है, और मुसलमानों को दुश्मन के मुक़ाबले पर बहादुर बनाया जाता है कि कोई व्यक्ति अल्लाह के हुक्म के बिना मर नहीं सकता, चाहे वो मौत के मुंह में घुस जाए. और जब मौत का वक़्त आता है तो कोई तदबीर नहीं बचा सकती.

(5) इससे आगे पीछे नहीं हो सकता.

(6) और उसको अपने अमल और फ़रमाँबरदारी से दुनिया के फ़ायदे की तलब हो.

(7) इससे साबित हुआ कि नियत पर सारा आधार है, जैसा कि बुख़ारी व मुस्लिम की हदीस में आया हैं.

(8) ऐसा ही ईमानदार को चाहिये.

(9) यानी दीन की हिमायत और जंग के मैदान में उनकी ज़बान पर कोई ऐसा शब्द न आता जिसमें घबराहट या परेशानी या डगमगाहट का शुबह भी होता, बल्कि वह दृढ़ संकल्प के साथ डटे रहते और दुआ करते.

(10) यानी तमाम छोटे बड़े गुनाह, इसके बावुजूद कि वो लोग अल्लाह से डरने वाले थे फिर भी गुनाहों का अपनी तरफ़ जोड़ना उनकी विनीति, इन्किसारी और नम्रता और बन्दगी के अदब में से है.

(11) इससे यह मसअला मालूम हुआ कि हाजत तलब करने से पहले तौबह इस्तिग़फ़ार दुआ के तरीक़ों में से हैं.

(12) यानी विजय और कामयाबी और दुश्मनों पर ग़लबा.

(13) मग़फ़िरत और जन्नत और जितना हक़ बनता है, उससे कहीं ज़्यादा इनआम.

सूरए आले इमरान – सौलहवाँ रूकू

सूरए आले इमरान – सौलहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

ऐ ईमान वालो! अगर तुम काफ़िरों के कहे पर चले (1)
तो वो तुम्हें उल्टे पाँव लौटा देंगे (2)
फिर टोटा खाके पलट जाओगे  (3) (149)
बल्कि अल्लाह तुम्हारा मौला है और वह सबसे बेहतर मददगार (150) कोई दम जाता है कि हम काफ़िरों के दिल में रोब (भय) डालेंगे  (4)
कि उन्होंने अल्लाह का शरीक ठहराया जिस पर उसने कोई समझ न उतारी उनका ठिकाना दोज़ख़ है और क्या बुरा ठिकाना नाइन्साफ़ों का (151) और बेशक अल्लाह ने तुम्हें सच कर दिखाया अपना वादा जबकि तुम उसके हुक्म से काफ़िरों को क़त्ल करते थे (5)
यहां तक कि जब तुमने बुज़दिली या कायरता की और हुक्म में झगड़ा डाला (6)
और नाफ़रमानी की(7)
बाद इसके कि अल्लाह तुम्हें दिखा चुका तुम्हारी ख़ुशी की बात (8)
तुम में कोई दुनिया चाहता था  (9)
और तुम में कोई आख़िरत चाहता था (10)
फिर तुम्हारा मुंह उनसे फेर दिया कि तुम्हें आज़माए (11)
और बेशक उसने तुम्हें माफ़ कर दिया और अल्लाह मुसलमानों पर फ़ज़्ल करता है (152) जब तुम मुंह उठाए चले जाते थे और पीठ फेर कर किसी को न देखते और दूसरी जमाअत में हमारे रसूल तुम्हें पुकार रहे थे  (12)
तो तुम्हें ग़म का बदला ग़म दिया (13)
और माफ़ी इसलिये सुनाई कि जो हाथ से गया और जो उफ़ताद (मुसीबत) पड़ी उसका रंज न करो और अल्लाह को तुम्हारे कामों की ख़बर है (153) फिर तुम पर ग़म के बाद चैन की नींद उतारी (14)
कि तुम्हारी एक जमाअत को घेरे थी (15) 
और एक दल को (16)
अपनी जान की पड़ी थी (17)
अल्लाह पर बेजा गुमान करते थे  (18)
जाहिलियत या अज्ञानता के से गुमान, कहते क्या इस काम में कुछ हमारा भी इख्ति़यार (अधिकार) है तुम फ़रमादो कि इख़्तियार तो सारा अल्लाह का है (19)
अपने दिलों में छुपाते हैं (20)
जो तुम पर ज़ाहिर नहीं करते, कहते हैं हमारा कुछ बस होता (21)
तो हम यहां न मारे जाते, तुम फ़रमादो कि अगर तुम अपने घरों में होते जब भी जिनका मारा जाना लिखा जा चुका था अपनी क़त्लगाहों तक निकल कर आते  (22)
और इसलिये कि अल्लाह तुम्हारे सीनों की बात आज़माए और जो कुछ तुम्हारे दिलों में है (23)
उसे खोल दे और अल्लाह दिलों की बात ख़ूब जानता है (24) (154)
बेशक वो जो तुम में से फिर गए  (25)
जिस दिन दोनों फौज़ें  मिली थीं उन्हें शैतान ही ने लग़ज़िश  (भुलावा) दी उनके कुछ कर्मों के कारण   (26)
और बेशक अल्लाह ने उन्हें माफ़ फ़रमा दिया बेशक अल्लाह बख़्शने वाला हिल्म (सहिष्णुता) वाला है (155)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – सौलहवाँ रूकू

(1) चाहे वो यहूदी और ईसाई हों या मुनाफ़िक़ और मुश्रिक.

(2) कुफ़्र और बेदीनी की तरफ़.

(3) इस आयत से मालूम हुआ कि मुसलमानों पर लाज़िम है कि वो काफ़िरों से अलग रहें और हरगिज़ उनकी राय और सलाह पर अमल न करें और उनके कहे पर न चलें.

(4) उहद की लड़ाई से वापस होकर जब अबू सुफ़ियान वग़ैरह अपने लश्कर वालों के साथ मक्कए मुकर्रमा की तरफ रवाना हुए तों उन्हें इस पर अफ़सोस हुआ कि हमने मुसलमानों को बिल्कुल ख़त्म क्यों न कर डाला. आपस में सलाह करके इस पर तैयार हुए कि चलकर उन्हें ख़त्म कर दें. जब यह इरादा पक्का हुआ तो अल्लाह तआला ने उनके दिलों में रोब डाला और उन्हें डर हुआ और वो मक्कए मुकर्रमा ही की तरफ़ वापस हो गए. अगरचे कारण तो विशेष था लेकिन रोब तमाम काफ़िरों के दिलों में डाल दिया गया कि दुनिया के सारे काफ़िर मुसलमानों से डरते हैं और अल्लाह के फ़ज़्ल से इस्लाम सारे धर्मों पर ग़ालिब हैं.

(5) उहद की लड़ाई में.

(6) काफ़िरों की पराजय के बाद हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर के साथ जो तीर अंदाज़ थे वो कहने लगे कि मुश्रिकों को पराजय हो चुकी, अब यहाँ ठहरकर क्या करें. चलो कुछ लूट का माल हासिल करने की कोशिश करें. कुछ ने कहा कि अपनी जगह मत छोड़ो. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने हुक्म फ़रमाया है कि तुम अपनी जगह क़ायम रहना, किसी हाल में जगह मत छोड़ना, जब तक मेरा हुक्म न आए. मगर लोग लूट के माल के लिये चल पड़े और हज़रत अब्दुल्लाह बिन जुबैर के साथ दस से कम साथी रह गए.

(7) कि मरकज़ छोड़ दिया और लूट का माल हासिल करने में लग गए.

(8) यानी काफ़िरों की पराजय.

(9) जो मरकज़ छोड़ कर लूट के लिये चल दिया.

(10) जो अपने सरदार अब्दुल्लाह बिन जुबैर के साथ अपनी जगह पर क़ायम रहकर शहीद हो गया.

(11) और मुसीबतों पर तुम्हारे सब्र करने और डटे रहने की परीक्षा हो.

(12) कि ख़ुदा के बन्दो, मेरी तरफ़ आओ.

(13) यानी तुमने जो रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुक्म की अवहेलना करके आपको दुख पहुंचाया, उसके बदले तुम्हें पराजय के ग़म में डाल दिया.

(14) जो रोब और डर दिलों में था, उसको अल्लाह तआला ने दूर कर दिया और अम्न और राहत के साथ उन पर नींद उतारी. यहाँ तक कि मुसलमानों को ऊंघ आ गई और नींद उन पर छा गई. हज़रत अबू तलहा फ़रमाते हैं कि उहद के दिन नींद हम पर छा गई, हम मैदान में थे, तलवार हमारे हाथ से छूट जाती थी. फिर उठाते थे, फिर छूट जाती थी.

(15) और वह जमाअत सच्चे ईमान वालों की थी.

(16) जो दोग़ली प्रवृत्ति के यानी मुनाफ़िक़ थे.

(17) और वो ख़ौफ़ से परेशान थे. अल्लाह तआला ने वहाँ ईमान वालों को मुनाफ़िक़ों से इस तरह अलग किया था कि ईमान वालों पर तो अम्न और इत्मीनान की नींद का ग़लबा था और मुनाफ़िक़ डर और दहशत में अपनी जानों के भय से परेशान थे. और यह खुली निशानी और साफ़ चमत्कार था.

(18) यानी मुनाफ़िक़ों को यह गुमान हो रहा था कि अल्लाह तआला सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मदद न फ़रमाएगा, यह कि हुज़ूर शहीद हो गए. अब आपका दीन बाक़ी न रहेगा.

(19) विजय और कामयाबी, मौत और ज़िन्दगी सब उसके हाथ है.

(20) मुनाफ़िक़ अपना कुफ़्र और अल्लाह के वादे में अपना संदेह करना और जिहाद में मुसलमानों के चले आने पर पछताना.

(21) और हमें समझ होती तो हम घर से न निकलते, मुसलमानों के साथ मक्के वालों से लड़ाई के लिये न आते और हमारे सरदार न मारे जाते. पहले क़ौल का क़ायल अब्दुल्लाह बिन उबई सलूल मुनाफ़िक़ है और इस क़ौल का क़ायल मुअत्तब बिन क़ुशैर.

(22) और घरों में बैठ रहना कुछ काम न आता, क्योंकि अल्लाह की तरफ़ से जो लिख गया है उसके सामने तदबीर और बहाना बेकार है.

(23)  इख़लास या दोग़लापन.

(24) उससे कुछ छुपा नहीं और यह आज़माइश दूसरों को ख़बरदार करने के लिये है.

(25) और उहद की लड़ाई में भाग गए और नबीये करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ तेरह या चौदह सहाबा के सिवा कोई बाक़ी न रहा.

(26) कि उन्होंने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के हुक्म के विपरीत अपनी जगह छोड़ी.

सूरए आले इमरान – सत्तरहवाँ रूकू

सूरए आले इमरान – सत्तरहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

ऐ ईमान वालों, इन काफ़िरों  (1)
की तरह न होना जिन्होंने अपने भाईयों की निस्बत कहा जब वो सफ़र या जिहाद को गए (2)
कि हमारे पास होते तो न मरते और न मारे जाते इसलिये कि अल्लाह उनके दिलों में उसका अफ़सोस रखे और अल्लाह जिलाता और मारता है (3)
और अल्लाह तुम्हारे काम देख रहा है (156) और बेशक अगर तुम अल्लाह की राह में मारे जाओ या मर जाओ(4)
तो अल्लाह की बख़्शिश  (ईनाम)  और रहमत (5)
उनके सारे धन दौलत से बेहतर है (157) और अगर तुम मरो या मारे जाओ तो अल्लाह की तरफ़ उठना है (6) (158) 
तो कैसी कुछ अल्लाह की मेहरबानी है कि ऐ मेहबूब,  तुम इनके लिये नर्म दिल हुए (7)
और अगर तुम तुन्दमिज़ाज़ (क्रुद्व स्वभाव) सख़्त दिल होते (8)
तो वो ज़रूर तुम्हारे गिर्द से परेशान हो जाते तो तुम उन्हें माफ़ फ़रमाओ और उनकी शफ़ाअत करो(9)
और कामों में उनसे मशवरा लो (10)
और जो किसी बात का इरादा पक्का कर लोतो अल्लाह पर भरोसा करो (11)
बेशक तवक्कुल (भरोसा करने) वाले अल्लाह को प्यारे हैं (159) और अगर अल्लाह तुम्हारी मदद करे तो कोई तुम पर ग़ालिब नहीं आ सकता (12)
और अगर वह तुम्हें छोड़ दे तो ऐसा कौन है जो फिर तुम्हारी मदद करे और मुसलमानों को अल्लाह ही पर भरोसा चाहिये (160) और किसी नबी पर ये गुमान नहीं हो सकता कि वह कुछ छुपा रखे (13)
और जो छुपा रखे वह क़यामत के दिन अपनी छुपाई चीज़ लेकर आएगा फिर हर जान को उनकी कमाई भरपूर दी जाएगी और उनपर ज़ुल्म न होगा (161) तो क्या जो अल्लाह की मर्ज़ी पर चला (14)
वह उस जैसा होगा जिसने अल्लाह का ग़ज़ब (प्रकोप)  ओढ़ा (15)
और उसका ठिकाना जहन्नम है और क्या बुरी जगह पलटने की (162) वो अल्लाह के यहाँ दर्जा दर्जा हैं (16)
और अल्लाह उनके काम देखता है  (163) बेशक अल्लाह का बड़ा एहसान हुआ (17)
मुसलमानों पर कि उनमें उन्हीं में से  (18)
एक रसूल (19)
भेजा जो उनपर उसकी आयतें पढ़ता है (20)
और उन्हें पाक करता है  (21)
और उन्हें किताब व हिकमत  (बोध) सिखाता है (22)
और वो ज़रूर इससे पहले खुली गुमराही में थे  (23)(164)
क्या जब तुम्हें कोई मुसीबत पहुंचे (24)
कि उससे दूनी तुम पहुंचा चुके हो (25)
तो कहने लगो कि ये कहाँ से आई(26)
तुम फ़रमा दो कि वह तुम्हारी ही तरफ़ से आई (27)
बेशक अल्लाह सबकुछ कर सकता है (165) और मुसीबत जो तुम पर आई (28)
जिस दिन दो फौजें (29)
मिली थीं वह अल्लाह के हुक्म से थी और इसलिये कि पहचान करा दे ईमान वालों की (166) और इसलिये कि पहचान करा दे उनकी जो मुनाफ़िक़ (दोग़ले) हुए (30)
और उनसे (31)
कहा गया कि आओ (32)
अल्लाह की राह में लड़ो या दुश्मन को हटाओ (33)
बोले अगर हम लड़ाई होती जानते तो ज़रूर तुम्हारा साथ देते और इस दिन ज़ाहिरी ईमान के मुक़ाबले में ख़ुले कुफ्ऱ से ज्यादा क़रीब हैं अपने अपने मुंह से कहते हैं जो उनके दिल में नहीं और अल्लाह को मालूम है जो छुपा रहे हैं (34)(167) वो जिन्होंने अपने भाईयों के बारे (35)
में कहा और आप बैठ रहे कि वो हमारा कहा मानते (36)
तो न मारे जाते तुम फ़रमाओ तो अपनी ही मौत टाल दो अगर सच्चे हो  (37)(168)
और जो अल्लाह की राह में मारे गए (38)
कभी उन्हें मुर्दा ख़्याल न करना बल्कि वो अपने रब के पास ज़िन्दा हैं रोज़ी पाते हैं(39) (169)
शाद (प्रसन्न) हैं उसपर जो अल्लाह ने उन्हें अपने फ़ज़्ल (कृपा) से दिया (40)
और ख़ुशियाँ मना रहे हैं अपने पिछलों की जो अभी उनसे न मिले (41)
कि उनपर न कुछ अन्देशा  (डर) है और न कुछ ग़म  (170) ख़ुशियाँ मनाते हैं अल्लाह की नेअमत और फ़ज़्ल की और यह कि अल्लाह ज़ाया (नष्ट) नहीं करता अज्र (ईनाम) मुसलमानों का (42) (171)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान –    सत्तरहवाँ रूकू

(1) यानी इब्ने उबई वग़ैरह दोग़ली प्रवृत्ति वाले लोग.

(2) और इस सफ़र में मर गए या जिहाद में शहीद हो गए.

(3) मौत और ज़िन्दगी उसी के इख़्तियार में है, चाहे तो मुसाफ़िर और ग़ाज़ी को सलामत लाए और सुरक्षित घर में बैठे हुए को मौत दे. उन मुनाफ़िक़ों के पास बैठ रहना क्या किसी को मौत से बचा सकता है. और जिहाद में जाने से कब मौत लाज़िम है. और अगर आदमी जिहाद में मारा जाए तो वह मौत घर की मौत से कहीं ज़्यादा अच्छी है, लिहाज़ा मुनाफ़िक़ों का यह क़ौल बातिल और ख़ाली धोखा है. और उनका मक़सद मुसलमानों को जिहाद से नफ़रत दिलाना है, जैसा कि अगली आयत में इरशाद होता है.

(4) और मान लो वह सूरत पेश ही आ जाती है जिसका तुम्हें डर दिलाया जाता है.

(5) जो ख़ुदा की राह में मरने पर हासिल होती है.

(6) यहाँ बन्दगी के दर्जों में से तीनों दर्जों का बयान फ़रमाया गया. पहला दर्जा तो यह है कि बन्दा दोज़ख़ के डर से अल्लाह की इबादत करे, तो उसको दोज़ख़ के अज़ाब से अम्न दिया जाता है. इसी तरफ़ “लमग़फ़िरतुम मिनल्लाह” (तो अल्लाह की बख़्शिश) में इशारा है, दूसरी क़िस्म वो बन्दे हैं जो जन्नत के शौक़ में अल्लाह की इबादत करते हैं, इस की तरफ़ “व-रहमतुन” (और रहमत) में इशारा है, क्योंकि रहमत भी जन्नत का एक नाम है. तीसरी क़िस्म वह मुख़लिस बन्दे हैं जो अल्लाह के इश्क़ और उसकी पाक ज़ात से महब्बत  में उसकी इबादत करते हैं और उनका लक्ष्य उसकी ज़ात के सिवा और कुछ नहीं है. उन्हें अल्लाह तआला अपने करम के दायरे में अपनी तजल्ली या प्रकाश से नवाज़ेगा. इसकी तरफ़ “ल इलल्लाहे तोहशरून”  (तो अल्लाह की तरफ़ उठना है) में इशारा है.

(7) और आपके मिज़ाज में इस दर्जा लुत्फ़ व करम और मेहरबानी और रहमत हुई कि उहद के दिन ग़ुस्सा न फ़रमाया.

(8) और सख़्ती और दबाव से काम लेते.

(9) ताकि अल्लाह तआला उन्हें माफ़ फरमाए.,

(10) कि इसमें उनका दिल रखना भी है और सत्कार भी, और यह फ़ायदा भी कि सलाह व मशवरा सुन्नत हो जाएगा और आयन्दा उम्मत इससे नफ़ा उठाती रहेगी. मशवरा के मानी हैं कि काम में राय लेना. इससे इज्तिहाद का जायज़ होना और क़यास का तर्क होना साबित होता है. (मदारिक व ख़ाज़िन)

(11) तवक्कुल के मानी है अल्लाह तआला पर भरोसा करना और कामों को उसके हवाले कर देना. उद्देशय यह है कि बन्दे का भरोसा तमाम कामों में अल्लाह पर होना चाहिये. इससे मालूम हुआ कि मशवरा तवक्कुल के ख़िलाफ़ नहीं है.

(12) और अल्लाह की मदद वही पाता है जो अपनी शक्ति और ताक़त पर भरोसा नहीं करता, बल्कि अल्लाह तआला की क़ुदरत और रहमत का अभिलाषी रहता है.

(13) क्योंकि यह नबुव्वत यानी नबी होने की शान के ख़िलाफ़ है और सारे नबी मासूम हैं. उन से ऐसा संभव नहीं. न वही (देव वाणी) में न ग़ैर वही में. और जो कोई व्यक्ति कुछ छुपा रखे उसका हुक्म इसी आयत में आगे बयान फ़रमाया जाता है.

(14) और उसकी आज्ञा की अवहेलना से बचा जैसे कि मुहाजिर और अन्सार और उम्मत के नेक लोग.

(15) यानी अल्लाह का नाफ़रमान हुआ जैसे कि दोग़ली प्रवृत्ति वाले मुनाफ़िक़ और काफ़िर.

(16) हर एक का दर्जा और उसका स्थान अलग, नेक का अलग, बुरे का अलग.

(17) मन्नत बड़ी नेअमत को कहते है और बेशक सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का रसूल बनकर तशरीफ़ लाना एक बड़ी नेअमत है, क्योंकि आदमी की पैदायश जिहालत, नासमझी और कम अक़्ली पर है तो अल्लाह तआला ने रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को उनमें भेज कर उन्हें गुमराही से रिहाई दी और हुज़ूर की बदौलत उन्हें दृष्टि प्रदान करके जिहालत या अज्ञानता से निकाला और आपके सदक़े में सीधी सच्ची राह दिखाई. और आपके तुफ़ैल में अनगिनत नेअमतें अता की.

(18) यानी उनके हाल पर मेहरबानी और अनुकम्पा फ़रमाने वाला और उनके लिये गौरव और इज़्ज़त का कारण, जिसकी पाकबाज़ी सच्चाई, ईमानदारी और सदव्यवहार से वो परिचित हैं.

(19) सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम.

(20) और उसकी क़िताब क़ुरआने मजीद उनको सुनाता है, इसके बावुजूद कि उनके कान पहले कभी अल्लाह के कलाम या देववाणी से परिचित न हुए थे.

(21) कुफ़्र और गुमराही और गुनाहों की प्रवृत्ति और दुर्व्यवहार और बुरी आदतों से.

(22) और नफ़्स की, जानने और अमल करने, दोनों क्षमताओं को सम्पूर्ण करता है.

(23) कि सत्य और असत्य, भलाई और बुराई में पहचान न रखते थे, और जिहालत और दिल के अंधेपन में गिरफ़्तार थे.

(24) जैसी कि उहद की लड़ाई में पहुंची कि तुम में से सत्तर क़त्ल हुए.

(25) बद्र में कि तम में सत्तर को क़त्ल किया, सत्तर को बन्दी बनाया.

(26) और क्यों पहुंची जब कि हम मुसलमान हैं और हममें रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम मौजूद हैं.

(27) कि तुम ने रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की मर्ज़ी के ख़िलाफ़ मदीनए तैय्यिबह से बाहर निकल कर जंग करने पर ज़ोर दिया फिर वहाँ पहुंचने के बाद हुज़ूर के सख़्त मना फ़रमाने के बावुजूद लूट के माल के लिये अपनी जगह छोड़ी. यह कारण तुम्हारे क़त्ल और पराजय का हुआ.

(28) उहद में.

(29) ईमान वालों और मुश्रिकों की.

(30) यानी ईमान वालों और दोग़ली प्रवृत्ति वाले यानी मुनाफ़िक़ छिक गए.

(31) यानी अब्दुल्लाह बिन उबई बिन सलूल वग़ैरह मुनाफ़िक़ों से.

(32) मुसलमानों की संख़्या बढ़ाओ, दीन की हिफ़ाज़त के लिये.

(33) अपने घर और माल को बचाने के लिये.

(34) यानी दोहरी प्रवृत्ति, ज़बान पर कुछ, दिल में कुछ.

(35) यानी उहद के शहीद जो वंश के हिसाब से उनके भाई थे. उनके हक़ में अब्दुल्लाह बिन उबई वग़ैरह मुनाफ़िक़ों ने.

(36) और रसूलुल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के साथ जिहाद में न जाते या वहाँ से फिर आते.

(37) रिवायत है कि जिस रोज़ मुनाफ़िक़ों ने यह बात कही, उसी दिन सत्तर मुनाफ़िक़ मर गए.

(38) अक्सर मुफ़िस्सिरों का क़ौल है कि यह आयत उहद के शहीदों के बारे में उतर. हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा से रिवायत है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया जब तुम्हारे भाई उहद में शहीद हुए, अल्लाह तआला ने उनकी रूहों को हरी चिड़ियों के जिस्म अता फ़रमाए, वो जन्नती नेहरों पर सैर करते फिरते हैं, जन्नती मेवे खाते हैं. जब उन्होंने खाने पीने रहने के पाक़ीज़ा ऐश पाए, तो कहा कि हमारे भाइयों को कौन ख़बर दे कि हम जन्नत में ज़िन्दा हैं ताकि वो जन्नत से बेरग़बती न करें और जंग से बैठ न रहें. अल्लाह तआला ने फ़रमाया कि मैं उन्हें तुम्हारी ख़बर पहुंचाऊंगा. फिर यह आयत उतरी (अबू दाऊद). इससे साबित हुआ कि रूहें बाक़ी हैं, जिस्म के नष्ट होने के साथ नष्ट नहीं होतीं.

(39) और ज़िन्दों की तरह खाते पीते ऐश करते हैं. आयत की पृष्ठभूमि इस बात को ज़ाहिर करती है कि ज़िन्दगी रूह और जिस्म दोनों के लिये है. उलमा ने फ़रमाया कि शहीदों के जिस्म क़ब्रों में मेहफ़ूज़ रहते हैं. मिट्टी उनको नुक़सान नहीं पहुंचाती और सहाबा के ज़माने में और उसके बाद अक्सर यह देखा गया है कि अगर कभी शहीदों की क़ब्रें खुल गई तो उनके जिस्म ताज़ा पाए गए. (खाज़िन वग़ैरह).

(40) फ़ज़्ल और करामत और इनाम व एहसान, मौत के बाद ज़िन्दगी दी, अपना मुक़र्रब यानी प्रिय किया, जन्नत का रिज़्क़ और उसकी नेअमतें अता फ़रमाई, और इन मंज़िलों के हासिल करने के लिये शहादत की तौफ़ीक़ दी.

(41) और दुनिया में ईमान और तक़वा पर हैं, जब शहीद होंगे, उनके साथ मिलेंगे और क़यामत के दिन अम्न और चैन के साथ उठाए जाएंगे.

(42) बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है, हुज़ूर ने फ़रमाया, जिस किसी को ख़ुदा की राह में ज़ख़्म लगा वह क़यामत के दिन वैसा ही आएगा जैसा ज़ख़्म लगने के वक़्त था. उसके ख़ून की ख़ुशबू कस्तूरी की होगी और रंग ख़ून का. तिरमिज़ी और नसाई की हदीस में है कि शहीद को क़त्ल से तकलीफ़ नहीं होती, मगर ऐसी जैसी किसी को एक ख़राश लगे. मुस्लिम शरीफ़ की हदीस में है शहीद के सारे गुनाह माफ़ कर दिये जाते हैं, सिवाय क़र्ज़ के.

सूरए आले इमरान – अठारहवाँ रूकू

सूरए आले इमरान – अठारहवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

वो जो अल्लाह व रसूल के बुलाने पर हाज़िर हुए बाद इसके कि उन्हें ज़ख़्म पहुंच चुका था (1)
उनके निकोकारों (सदाचारी) और परहेज़गारों के लिये बड़ा सवाब है (172) वो जिनसे लोगों ने कहा (2)
कि लोगों ने (3)
तुम्हारे लिये जत्था जोड़ा तो उनसे डरो तो उनका ईमान और ज़्यादा हुआ और बोलो अल्लाह हमको बस है (173) और क्या अच्छा कारसाज़ (काम बनाने वाला) (4)
तो पलटे अल्लाह के एहसान और फ़ज़्ल से (5)
कि उन्हें कोई बुराई न पहुंची और अल्लाह की ख़ुशी पर चले (6)
और अल्लाह बङे फ़ज़्ल वाला है (7) (174)
वह तो शैतान ही है कि अपने दोस्तों से धमकाता है (8) 
तो उनसे न डरो (9)
और मुझसे डरो अगर ईमान रखते हो (10) (175)
और ऐ मेहबूब, तुम उनका कुछ ग़म न करो जो कुफ़्र पर दौङते हैं (11)
वो अल्लाह का कुछ न बिगाङेंगे और अल्लाह चाहता है कि आख़िरत में उनका कोई हिस्सा न रखे (12)
और उनके लिये बङा अज़ाब है (176) वो जिन्होंने ईमान के बदले कुफ़्र मोल लिया (13)
अल्लाह का कुछ न बिगाङेंगे और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है (177) और कभी काफ़िर इस गुमान में न रहें कि वो जो हम उन्हें ढील देते हैं कुछ उनके लिये भला हैं हम तो इसीलिये उन्हें ढील देते हैं कि और गुनाह बढ़ें (14)
और उनके लिये ज़िल्लत का अज़ाब है (178) अल्लाह मुसलमानों को इस हाल पर छोङने का नहीं जिसपर तुम हो (15)
जब तक जुदा न कर दे गन्दे को (16)
सुथरे से (17)
और अल्लाह की शान यह नहीं ऐ आम लोगो तुम्हें ग़ैब का इल्म देदे हाँ अल्लाह चुन लेता है अपने रसूलों से जिसे चाहे (18)
तो ईमान लाओ (19)
अल्लाह और उसके रसूलों पर और अगर ईमान लाओ और परहेज़गारी करो तो तुम्हारे लिये बङा सवाब है (179) और जो बुख़्ल (कंजूसी) करते हैं (20)
उस चीज़ में जो अल्लाह ने अपने फ़ज़्ल से दी हरगिज़ उसे अपने लिये अच्छा न समझें बल्कि वह उनके लिये बुरा है जल्द ही वह जिसमें बुख़्ल किया था क़यामत के दिन उनके गले का तौक़ होगा (21)
और अल्लाह ही वारिस है आसमानों और ज़मीन का (22)
और अल्लाह तुम्हारे कामों का ख़बरदार है (180)
तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान –    अठारहवाँ रूकू

(1) उहद की लड़ाई से निपटने के बाद जब अबू सुफ़ियान अपने साथियों के हमराह रोहा मक़ाम पर पहुंचे तो उन्हें अफ़सोस हुआ कि वो वापस क्यों आ गए, मुसलमानों का बिल्कुल ख़ात्मा ही क्यों न कर दिया. यह ख़याल करके उन्होंने फिर वापस होने का इरादा किया. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अबू सुफ़ियान के पीछे अपनी रवानगी का ऐलान फ़रमा दिया. सहाबा की एक जमाअत, जिनकी तादाद सत्तर थी, और जो उहद की लड़ाई के ज़ख़्मों से चूर हो रहे थे, हुज़ूर के ऐलान पर हाज़िर हो गए और हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम इस जमाअत को लेकर अबू सुफ़ियान के पीछे रवाना हो गए. जब हुज़ूर हमराउल असद स्थान पर पहुंचे, जो मदीने से आठ मील है, वहाँ मालूम हुआ कि मुश्रिक डर कर भाग गए, इस घटना के बारे में यह आयत उतरी.

(2) यानी नुएम बिन मसऊद अशजई ने.

(3) यानी अबू सुफ़ियान वग़ैरह मुश्रिकों ने.
(4) उहद की लड़ाई से वापस हुए अबू सुफ़ियान ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से पुकार कर कह दिया था कि अगले साल हमारी आपकी बद्र में लड़ाई होगी. हुज़ूर ने उनके जवाब में फ़रमाया, इन्शा-अल्लाह. जब वह वक़्त आया और अबू सुफ़ियान मक्का वालों को लेकर जंग के लिये रवाना हुए तो अल्लाह तआला ने उनके दिल में डर डाला और उन्होंने वापस हो जाने का इरादा किया. इस मौके पर अबू सुफ़ियान की नुएम बिन मसऊद अशजई से मुलाक़ात हुई जो उमरा करने आया था. अबू सुफ़ियान ने कहा कि ऐ नुएम इस ज़माने में मेरी लड़ाई बद्र में मुहम्मद के साथ हो चुकी है और इस वक़्त मुझे मुनासिब यह मालूम होता है कि मैं जंग में न जाऊ, वापस हो जाऊं तू मदीने जा और तदबीर के साथ मुसलमानों को जंग के मैदान में जाने से रोक, इसके बदले में मैं तुझे दस ऊट दूंगा. नुएम ने मदीने पहुंच कर देखा कि मुसलमान जंग की तैयारी कर रहे हैं. उनसे कहने लगा कि तुम जंग के लिये जाना चाहते हो. मक्का वालों ने तुम्हारे लिये बड़ी फ़ौज़ें जमा की हैं. ख़ुदा की क़सम तुम में से एक भी फिर कर न आएगा. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया, ख़ुदा की क़सम मैं ज़रूर जाऊंगा चाहे मेरे साथ कोई भी न हो. फिर हुज़ूर सत्तर सवारों को साथ लेकर “हस्बुनल्लाहो व नेमल वकील” पढ़ते हुए रवाना हुए. बद्र में पहुंचे, वहाँ आठ रात क़याम किया. तिजारत का माल साथ था, उसको फ़रोख़्त किया, ख़ूब नफ़ा हुआ और सलामती के साथ मदीने वापस हुए, जंग नहीं हुई क्योंकि अबू सुफ़ियान और मक्का वाले डर कर मक्का को लौट गए थे. इस घटना के सम्बन्ध में यह आयत उतरी.

(5) अम्न और आफ़ियत के साथ तिजारत का मुनाफ़ा हासिल करके.

(6) और दुश्मन के मुक़ाबले के लिये हिम्मत से निकले और जिहाद का सवाब पाया.

(7) कि उसने रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्ल्म की फ़रमाँबरदारी और जिहाद की तैयारी की तौफ़ीक़ दी और मुश्रिकों के दिलों में डर डाल दिया कि वो मुक़ाबले की हिम्म्त न कर सके और रास्ते से ही लौट गए.

(8) और मुसलमानों को मुश्रिकों की बड़ी संख्या से डराते हैं जैसा कि नुएम बिन मसऊद अशजई ने किया.

(9) यानी मुनाफ़िक़ और मुश्रिक जो शैतान के दोस्त हैं, उनका ख़ौफ़ न करो.

(10) क्योंकि ईमान का तक़ाज़ा ही यह है कि बन्दे को ख़ुदा ही का ख़ौफ़ हो.

(11) चाहे वो क़ुरैश के काफ़िर हों या मुनाफ़िक़ या यहूदियों के सरदार या अधर्मी, वो आपके मुक़ाबले के लिये कितने ही लश्कर जमा करें. कामयाब न होंगे.

(12) इसमें क़दरिय्या और मोअतज़िला का रद है, और आयत इस पर दलील है कि अच्छाई और बुराई अल्लाह के इरादे से है.

(13) यानी मुनाफ़िक़ जो ईमान का कलिमा पढ़ने के बाद काफ़िर हुए या वो लोग जो ईमान की क्षमता रखने के बावुजूद काफ़िर ही रहे और ईमान न लाए.

(14) सच्चाई से दुश्मनी और रसूल सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का विरोध करके. हदीस शरीफ़ में है, सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से दर्याफ़त किया गया, कौन शख़्स अच्छा है. फ़रमाया जिसकी उम्र लम्बी हो और कर्म नेक हों. अर्ज़ किया गया और बदतर कौन है. फ़रमाया, जिसकी उम्र लम्बी हो और कर्म ख़राब.

(15) ऐ इस्लाम का कलिमा पढ़ने वालो !

(16) यानी मुनाफ़िक़ को.

(17) सच्चे पक्के ईमान वाले से, यहाँ तक कि अपने नबी सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को तुम्हारे अहवाल पर सूचित करके मूमिन और मुनाफ़िक़ हर एक को अलग कर दे. रसूले करीम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने फ़रमाया कि सृष्टि के बनाने से पहले मेरी उम्मत मिट्टी की शक्ल में थी. उसी वक़्त वह मेरे सामने अपनी सूरतों में पेश किये गये, जैसे कि हज़रत आदम पर पेश किये गए थे. और मुझे इल्म दिया गया, कौन मुझ पर ईमान लाएगा, कौन कुफ़्र करेगा. यह ख़बर जब मुनाफ़िक़ों को पहुंची तो उन्हों ने मज़ाक़ उड़ाने के अन्दाज़ में कहा कि मुहम्मद का गुमान है कि वो यह जानते है कि जो लोग अभी पैदा भी नहीं हुए, उनमें से कौन उन पर ईमान लाएगा, कौन कुफ़्र करेगा, इसके बावुजूद कि हम उनके साथ हैं और वो हमें नहीं पहचानते. इस पर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने मिम्बर पर क़याम फ़रमाकर अल्लाह तआला की हम्द और तारीफ़ बयान करने के बाद फ़रमाया, उन लोगों का क्या हाल है जो मेरे इल्म पर ज़बान रखते हैं. आज से क़यामत तक जो कुछ होने वाला है उसमें से कोई चीज़ ऐसी नहीं है जिस का तुम मुझसे सवाल करो और मैं तुम्हें उसकी ख़बर न दे दूँ. अब्दुल्लाह बिन हुज़ाफ़ा सहमी ने खड़े होकर कहा कि मेरा बाप कौन है या रसूलल्लाह ? फ़रमाया हुज़ाफ़ा. फिर हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो खड़े हुए, उन्होंने फ़रमाया या रसूलल्लाह हम अल्लाह के मअबूद और रब होने पर राज़ी हुए, इस्लाम के दीन होने पर राज़ी हुए, क़ुरआन के इमाम होने पर राज़ी हुए, आपके नबी होने पर राज़ी हुए, हम आप से माफ़ी चाहते हैं. हुज़ूर ने फ़रमाया क्या तुम बाज़ आओगे, क्या तुम बाज़ आओगे फिर मिम्बर से उतर आए. इस पर अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी. इस हदीस से साबित हुआ कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को क़यामत तक की तमाम चीज़ों का इल्म अता किया गया है और हुज़ूर के इल्मे ग़ैब पर ज़बान खोलना मुनाफ़िक़ों का तरीक़ा है.

(18) तो उन बुज़ुर्गी वाले रसूलों को आज्ञात का ज्ञान यानी ग़ैब देता है. और सैयदुल अंबिया सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम अल्लाह के हबीब, रसूलों में सबसे बुज़ुर्गी वाले और बलन्द है. इस आयत से और इसके सिवा कई आयतों और हदीसों से साबित है कि अल्लाह तआला ने हुज़ूर सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम को ग़ैब के इल्म अता फ़रमाए. और अज्ञात का यह ज्ञान आपका चमत्कार है.

(19) और तस्दीक़ करो कि अल्लाह ने अपने बुज़ुर्गी वाले रसूलों को ग़ैब पर सूचित किया है.

(20) बुख़्ल के मानी में अकसर आलिम इस तरफ़ गए हैं कि वाजिब का अदा न करना बुख़्ल यानी कंजूसी है. इसीलिये बुख़्ल पर सख़्त फटकारें आई हैं. चुनांचे इस आयत में भी एक फटकार आ रही है. तिरमिज़ी की हदीस में है, बुख़्ल और दुर्व्यवहार ये दो आदतें ईमानदार में जमा नहीं होतीं. अकसर मुफ़स्सिरों ने फ़रमाया कि यहाँ बुख़्ल यानी कंजूसी से ज़कात न देने का तात्पर्य है.

(21) बुख़ारी शरीफ़ की हदीस में है कि जिसको अल्लाह ने माल दिया और उसने ज़कात अदा न की, क़यामत के दिन वह माल साँप बनकर उसके गले में हार की तरह लिपटेगा और यह कहकर डसता जाएगा कि मैं तेरा माल हूँ, मैं तेरा ख़ज़ाना हूँ.

(22) वही हमेशा रहने वाला, बाक़ी है, और सब मख़लूक़ फ़ानी. उन सब की मिल्क बातिल होने वाली है. तो निहायत नासमझी है कि इस न ठहरने वाले माल पर कंजूसी की जाए और ख़ुदा की राह में न दिया जाए.

सूरए आले इमरान – उन्नीसवाँ रूकू

सूरए आले इमरान – उन्नीसवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,

बेशक अल्लाह ने सुना जिन्होंने कहा कि अल्लाह मोहताज है और हम ग़नी  ( मालदार)(1)
और अब हम लिख रखेंगे उनका कहा (2)
और नबियों को उनका नाहक़ शहीद करना (3)
और फ़रमाएंगे कि चखो आग का अज़ाब (181) यह बदला है उसका जो तुम्हारे हाथों ने आगे भेजा और अल्लाह बन्दों पर ज़ुल्म  नहीं करता (182) वो जो कहते हैं अल्लाह ने हमसे इक़रार कर लिया है कि हम किसी रसूल पर ईमान न लाएं जब ऐसी क़ुरबानी का हुक्म न लाएं जिसे आग खाए (4)
तुम फ़रमादो मुझसे पहले बहुत रसूल तुम्हारे पास खुली निशानियां और यह हुक्म लेकर आए जो तुम कहते हो फिर तुमने उन्हें क्यों शहीद किया अगर सच्चे हो (5)  (183)
तो ऐ मेहबूब, अगर वो तुम्हारी तकज़ीब करते हैं या तुम्हें झुटलाते हैं तो तुमसे अगले रसुलों को भी झुटलाया गया है जो साफ़ निशानियां (6)
और सहीफ़े(धर्म ग्रन्थ) और चमकती किताब (7)
लेकर आए थे (184) हर जान को मौत चखनी है और तुम्हारे बदले तो क़यामत ही को पूरे मिलेंगे, जो आग से बचकर जन्नत में दाख़िल किया गया वह मुराद को पहुंचा और दुनिया की ज़िन्दगी तो यही धोखे का माल है (8) (185)
बेशक  ज़रूर तुम्हारी आज़माइश होगी तुम्हारे माल और तुम्हारी जानों में (9)
और बेशक ज़रूर तुम किताब वालों (10)
और मुश्रिकों से बहुत कुछ बुरा सुनोगे और अगर तुम सब्र करो और बचते रहो (11)
तो यह बड़ी हिम्मत का काम है (186) और याद करो जब अल्लाह ने अहद लिया उनसे जिन्हें किताब दी गई कि तुम ज़रूर उसे लोगों से बयान कर देना और न छुपाना (12)
तो उन्होंने उसे अपनी पीठ के पीछे फैंक दिया और उसके बदले ज़लील काम हासिल किये (13)
तो कितनी बुरी ख़रीदारी है  (14) (187)
कभी न समझना उन्हें जो ख़ुश होते हैं अपने किये पर और चाहते हैं कि बे किये उनकी तारीफ़ हो (15)
ऐसों को कभी अज़ाब से दूर न जानना और उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है  (188) और अल्लाह ही के लिये है आसमानों और ज़मीनों की बादशाही (16)
और अल्लाह हर चीज़ पर क़ादिर (शक्तिमान,समक्ष) है (189)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – उन्नीसवाँ रूकू

(1) यहूद ने यह आयत “मन ज़ल्लज़ी युक़रिदुल्लाह क़र्दन हसनन” (कौन है जो अल्लाह को क़र्ज़े हसना दे) सुनकर कहा था कि मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम का मअबूद हम से क़र्ज़ मांगता है तो हम मालदार हुए और वह फ़क़ीर हुआ. इस पर यह आयत उतरी.

(2) अअमाल नामों या कर्म लेख़ों में.

(3) नबियों के क़त्ल को इस क़ौल के साथ मिला दिये जाने से मालूम होता है कि ये दोनों जुर्म बहुत सख़्त हैं और अपनी ख़राबी में बराबर हैं, और नबियों की शान में गुस्ताख़ी करने वाला अल्लाह की शान में बेअदब हो जाता है.

(4) यहूदियों की एक जमाअत ने सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम से कहा था कि हमसे तौरात में एहद लिया गया है कि जो नबी होने का दावेदार ऐसी क़ुरबानी न लाए जिसको आसमान से सफ़ेद आग उतर कर खाए, उस पर हरगिज़ हम ईमान न लाएं. इस पर यह आयत उतरी और उनके इस ख़ालिस झूट और छूछे इल्ज़ाम का रद किया गया, क्योंकि इस शर्त का तौरात में कहीं नामों निशान भी नहीं है, और ज़ाहिर है कि नबी की तस्दीक़ के लिये चमत्कार काफ़ी है. कोई भी चमत्कार हो. जब नबी ने कोई चमत्कार दिखाया, उसके नबी होने पर दलील क़ायम हो गई और उसकी तस्दीक़ करना और उसकी नबुव्वत को मानना लाज़िम हो गया. अब किसी ख़ास चमत्कार पर ज़ोर देना, तर्क पूरा होने के बाद, नबी की तस्दीक़ का इन्कार है.

(5) जब तुमने यह निशानी लाने वाले नबियों को क़त्ल किया और उन पर ईमान न लाए तो साबित हो गया कि तुम्हारा यह दावा झूटा है.

(6) यानी साफ़ खुले चमत्कार.

(7) तौरात और इंजील.

(8) दुनिया की हक़ीक़त इस मुबारक जुमले ने खोल दी. आदमी ज़िन्दगी पर रीझता है, इसी को पूंजी समझता है और इस फ़ुर्सत को बेकार नष्ट कर देता है. अन्तिम समय उसे मालूम होता है कि उस में बक़ा यानी हमेशा की ज़िन्दगी न थी और उसके साथ दिल लगाना हमेशा की ज़िन्दगी और आख़िरत की ज़िन्दगी के लिये सख़्त हानिकारक हुआ. हज़रत सईद बिन जुबैर ने फ़रमाया कि दुनिया, दुनिया चाहने वाले के लिये घमण्ड की पूंजी और धोके का माल है, लेकिन आख़िरत चाहने वाले के लिये बाक़ी रहने वाली दौलत हासिल करने का ज़रिया और नफ़ा देने वाली पूंजी है. यह मज़मून इस आयत के ऊपर के वाक्यों से हासिल होता है.

(9) अधिकार और कर्तव्य और नुक़सान और मुसीबतें और बीमारियाँ और ख़तरे और क़त्ल और रंज और ग़म वग़ैरह, ताकि मूमिन और ग़ैर मूमिन में पहचान हो जाए. मुसलमानों को यह सम्बोधन इसलिये फ़रमाया गया कि आने वाली मुसीबतों और सख़्तियों पर उन्हें सब्र आसन हो जाए.

(10) यहूदी और ईसाई.

(11) गुनाहों से.

(12) अल्लाह तआला ने तौरात और इंजील के विद्वानों पर यह वाजिब किया था कि इन दोनों किताबों में सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम की नबुव्वत साबित करने वाली जो दलीलें हैं वो लोगों को ख़ूब अच्छी तरह खोल कर समझाएं और हरगिज़ न छुपाएं.

(13) और रिशवतें लेकर हुज़ूर सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के गुणों और विशेषताओं को छुपाया जो तौरात और इंजील में बयान किये गए थे.

(14) दीन की जानकारी का छुपाना मना है. हदीस शरीफ़ में आया है कि जिस व्यक्ति से कुछ पूछा गया जिसको वह जानता है और उसने उसे छुपाया, क़यामत के दिन उसके आग की लगाम लगाई जाएगी. उलमा पर वाजिब है कि अपने इल्म से फ़ायदा पहुंचाएं और सच्चाई ज़ाहिर करें और किसी बुरी ग़रज़ के लिये उसमें से कुछ न छुपाएं.

(15) यह आयत यहूदियों के बारे में उतरी जो लोगों को धोखा देने और गुमराह करने पर ख़ुश होते और नादान होने के बावुजूद यह पसन्द करते कि उन्हें आलिम कहा जाए. इस आयत में खुद पसंदी करने वाले पर फिटकार है, और उसके लिये भी जो लोगों से अपने आपको आलिम कहलवाते हैं या इसी तरह और कोई ग़लत विशेषता या गुण अपने लिये पसन्द करते हैं, उन्हें इससे सबक़ हासिल करना चाहिये.

(16) इसमें उन गुस्ताख़ों का रद है जिन्हों ने कहा था कि अल्लाह फ़क़ीर है.

सूरए आले इमरान – बीसवाँ रूकू

सूरए आले इमरान – बीसवाँ रूकू
अल्लाह के नाम से शुरु जो बहुत मेहरबान रहमत वाला,
बेशक आसमानों और ज़मीनों की पैदायश और रात और दिन की आपसी बदलियों में निशानियां हैं (1)
अक़्ल वालों के लिये (2)(190)
जो अल्लाह की याद करते हैं खड़े और बैठे और करवट पर लेटे (3)
और आसमानों और ज़मीनों की पैदायश में ग़ौर करते हैं(4)
ऐ रब हमारे तूने यह बेकार न बनाया(5)
पाकी है तुझे तू हमें दोज़ख़ में अज़ाब से बचा ले (191)  ऐ रब हमारे बेशक जिसे तू दोज़ख़ में ले जाए उसे ज़रूर तूने रूसवाई दी और ज़ालिमों का कोई मददगार नहीं  (192)  ऐ रब हमारे हमने एक मुनादी (उदघोषक) को सुना (6)
कि ईमान के लिये निदा (घोषणा) फ़रमाता है कि अपने रब पर ईमान लाओ तो हम ईमान लाए, ऐ रब हमारे तू हमारे गुनाह बख़्श दे और हमारी बुराईयां महव फ़रमादे  (भुला दे) और हमारी मौत अच्छों के साथ कर (7) (193)
ऐ रब हमारे और हमें दे वह (8)
जिस का तूने हमसे वादा किया है अपने रसूलों के ज़रिये और हमें क़यामत के दिन रूस्वा न कर बेशक तू वादा ख़िलाफ़ नहीं करता (194) तो उनकी दुआ सुन ली उनके रब ने कि मैं तुम में काम वाले की मेहनत अकारत नहीं करता मर्द हो या औरत तुम आपस में एक हो (9)
तो वो जिन्होंने हिजरत की और अपने घरों से निकाले गए और मेरी राह में सताए गए और लड़े और मारे गए मैं ज़रूर उनके सब गुनाह उतार दूंगा और ज़रूर उन्हें बाग़ों में ले जाऊंगा जिनके नीचे नहरे बहती हैं (10)
अल्लाह के पास का सवाब और अल्लाह ही के पास का सवाब है(195) ऐ सुनने वाले काफ़िरों का शहरों में अहले गहले फिरना कभी तुझे धोखा न दे  (11) (196)
थोड़ा बरतना उनका ठिकाना दोज़ख़ है और क्या ही बुरा बिछौना (197) लेकिन वो जो अपने रब से डरते हैं उनके लिये जन्नतें है जिनके नीचे नहरे बहे हमेशा उनमें रहें अल्लाह की तरफ़ की मेहमानी और जो अल्लाह के पास है वह नेकों के लिये सबसे भला (12)(198)
और बेशक कुछ किताबी ऐसे हैं कि अल्लाह पर ईमान लाते हैं और उसपर जो तुम्हारी तरफ़ उतरा और जो उनकी तरफ़ उतरा (13)
उनके दिल अल्लाह के हुज़ूर झुके हुए (14)
अल्लाह की आयतों के बदले ज़लील दाम नहीं लेते (15)
ये वो हैं जिनका सवाब (पुण्य) उनके रब के पास है और  अल्लाह जल्द हिसाब करने वाला है (199)  ऐ ईमान वालों सब्र करो  (16)
और सब्र में दुश्मनों से आगे रहो और सरहद पर इस्लामी मुल्क की निगहबानी (चौकसी) करो और  अल्लाह से डरते रहो इस उम्मीद पर कि कामयाब हो (200)

तफ़सीर : 
सूरए आले इमरान – बीसवाँ रूकू

(1) सानेअ यानी निर्माता या विधाता, क़दीम यानी आदि, अलीम यानी जानकार, हकीम यानी हिकमत वाला और क़ादिर यानी शक्ति वाला, अर्थात अल्लाह के अस्तित्व का प्रमाण देने वाली.

(2) जिनकी अक़्ल गन्दे ख़यालों से पाक हो और सृष्टि के चमत्कारों को विश्वास और तर्क की नज़र से देखते हों.

(3) यानी तमाम एहवाल में. मुस्लिम शरीफ़ में रिवायत है कि सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम तमाम मजलिसों में अल्लाह का ज़िक्र फ़रमाते थे. बन्दे का कोई हाल अल्लाह की याद से ख़ाली नहीं होना चाहिये. हदीस शरीफ़ में है, जो जन्नती बाग़ों के फलों का मज़ा लेना चाहे उसे चाहिये कि अल्लाह के ज़िक्र की कसरत यानी ज़ियादती करे.

(4) और इससे उनके बनाने वाले की क़ुदरत और हिकमत पर दलील लाते हैं यह कहते हुए कि….

(5) बल्कि अपनी पहचान का प्रमाण बनाया.

(6) इस निदा करने वाले या पुकारने से मुराद या सैयदे आलम मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम हैं, जिनकी शान में “दाइयन इलल्लाहे बिइज़्निही” (अल्लाह की तरफ़ बुलाते है उसी के हुक्म से) आया है या क़ुरआन शरीफ़.

(7) नबियों और नेक लोगों के कि हम उनके फरमाँबरदारों में दाख़िल किये जाएं.

(8) वह फ़ज़्ल, मेहरबानी और रहमत.

(9) और कर्मों के बदले में औरत व मर्द के बीच कोई अन्तर नहीं. उम्मुल मुमिनीन हज़रत उम्मे सलमा रदियल्लाहो अन्हा ने अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम, मैं हिजरत में औरतों का कुछ ज़िक्र ही नहीं सुनती, यानी मर्दों की फ़ज़ीलतें तो मालूम हुईं लेकिन यह भी मालूम हो कि औरतों को हिजरत का कुछ सवाब मिलेगा. इस पर यह आयत उतरी और उनकी तसल्ली फ़रमादी गई कि सवाब का आधार कर्म पर है, औरत का हो या मर्द का.

(10) यह सब अल्लाह का फ़ज़्ल और करम हैं.

(11) मुसलमानों की एक जमाअत ने कहा कि काफ़िर और मुश्रिक, अल्लाह तआला के दुश्मन तो ऐश व आराम से हैं और हम तंगी और मशक़्क़त में. इस पर यह आयत उतरी और उन्हें बताया गया कि काफ़िरों का यह ऐश थोड़ी देर की पूंजी है और अन्त ख़राब.

(12) बुख़ारी और मुस्लिम की हदीस में है कि हज़रत उमर रदियल्लाहो अन्हो सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम के मकान पर हाज़िर हुए तो उन्होंने देखा कि जगत के सरदार एक बोरिये पर आराम फ़रमा हैं, चमड़े का तकिया जिसमें नारियल के रेशे भरे हुए हैं, सरे मुबारक के नीचे है. बदने मुबारक पर बोरिये के निशान आ गए हैं. यह हाल देखकर हज़रत फ़ारूक़ रो पड़े. सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने रोने का कारण पूछा तो अर्ज़ किया, या रसूलल्लाह क़ैसर और किसरा (रोम और ईरान के बादशाह) तो ऐश और राहत में हों और आप अल्लाह के रसूल होकर इस हालत में, फ़रमाया, क्या तुम्हें पसन्द नहीं कि उनके लिये दुनिया हो और हमारे लिये आख़िरत.

(13) हज़रत इब्ने अब्बास रदियल्लाहो अन्हुमा ने फ़रमाया यह आयत नजाशी हबशा के बादशाह के बारे में उतरी. उनकी वफ़ात के दिन सैयदे आलम सल्लल्लाहो अलैहे वसल्लम ने अपने सहाबा से फ़रमाया चलों और अपने भाई की नमाज़ पढ़ो जिसने दूसरे मुल्क में वफ़ात पाई है. हुज़ूर बक़ीअ शरीफ़ में तशरीफ़ ले गए और हबशा की ज़मीन आपके सामने की गई और नजाशी बादशाह का जनाज़ा पेशे नज़र हुआ. उस पर आपने चार तकबीरों के साथ नमाज़ पढ़ी और उसके लिये मग़फ़िरत की दुआ की. सुब्हानल्लाह, क्या नज़र है, क्या शान है. हबशा की धरती अरब में सरकार के सामने पेश कर दी जाती है. मुनाफ़िक़ों ने इस पर ताना मारा और कहा देखो हबशा के ईसाई पर नमाज़ पढ़ रहे है जिसको आपने कभी देखा ही नहीं और वह आपके दीन पर भी न था. इस पर अल्लाह तआला ने यह आयत उतारी.

(14) नम्रता, विनीति, इन्किसारी और खुलूस के साथ.

(15) जैसा कि यहूदियों के सरदार लेते है.

(16) अपने दीन पर और उसको किसी सख़्ती और तकलीफ़ वग़ैरह की वजह से न छोड़ो. सब्र के मानी में जुनैद बग़दादी रदियल्लाहो अन्हो ने फ़रमाया कि सब्र नफ़्स को नागवार और नापसन्दीदा काम पर रोकना है, बग़ैर पछतावे के. कुछ का कहना है कि सब्र की तीन क़िस्में हैं (1) शिकायत का छोड़ देना (2) जो भाग्य में लिखा है उसे क़ुबूल कर लेना और (3) सच्चे दिल से अल्लाह की रज़ा तलाश करना.